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लघुकथाएँ - संचयन - कुलदीप जैन
शोषण-मुक्ति

पिता ने बीड़ी का आखिरी कश लेकर धुआं निकालना चाहा, लेकिन वह बुझ चुकी थी। लिहाजा हाथ बढ़ाकर उन्होंने बीड़ी के टुकड़े को बेरहमी से मसल दिया और कुछ कहने का उपक्रम करने लगे। वह पिता की इस हरकत को बड़े गौर से देखता रहा। ‘‘लल्लू कह रहा था, तूने सिगरेट पीनी शुरू कर दी है।’’ इसके तुरंत बाद पिता तेजी से खांसने लगते हैं। ‘‘पीनी शुरू कर दी है तो क्या हुआ, कमाता नहीं हूँ ।’’ उसके जी में आया कि वह पिता के सामने अगला-पिछला अभी तय कर ले। आखिर इस तरह टोकने की जरूरत क्या है। बड़े भाई से तो कुछ भी नहीं कह पाते, जो शराब, जुआ, गांजा, पता नहीं क्या-क्या ऐब करता है। खुद तो कुछ करता नहीं, उल्टा अपनी पत्नी के माध्यम से माँ-पिता को तरह-तरह से सताता है। उसके सामने पिताजी भीगी बिल्ली क्यों बन जाते हैं। आखिर वह नौकरी क्यों नहीं करना चाहता। वह पहले ही व्यापार में घाटा दे चुका है।
‘‘बेटे, तुम तो घर की हालत देख रहे हो। तुम खुद जिम्मेदार-समझदार हो। तेरे बड़े भाई से तो कुछ आशा नहीं। हम तुझे पीने-खाने को मना नहीं करते पर ये यारी-दोस्ती बस पैसे की होती है। सब साले मतलब के याद हैं। कभी इन लोगो ने भी तुझ पर एक पैसा खर्च किया है। तू कब तक इन लोगों को सिनेमा दिखाएगा। आखिर तेरी जवान बहन भी बैठी है, उसके बारे में तेरे बड़े भाई ने तो जवाब दे दिया है।’’
डसके जी में आया कि वह पिता से चिल्लाकर कह दे-‘‘मैं तुम्हारी किसी बात में नहीं आने वाला। ये रोने-धोने वाले लटके अब मैं खूब पहचानता हूँ। बहन की शादी का बोझ अकेले मैं नहीं उठाऊँगा।’’ ‘पिताजी’, वह धीरे से बोला और सोचने लगा कि वह अपने निर्णय की शुरूआत किन शब्दों से करे। पिता बोले।
‘‘हाँ, तो तुम मेरे पास कुछ कहने आए थे।’’
‘‘मेरा ट्रांसफर हो गया है।’’ वह इतना ही कह पाता है। पिता उसके इस वाक्य से एकबारगी चौंक जाते हैं, लेकिन सोडा वाटर के उफान की तरह शान्त होकर खाट में लेट जाते हैं। वह इत्मीनान से उठा और गली में से होता सड़क पर आ गया। पान वाले की दुकान से एक सिगरेट लेकर उसने बेफिक्री का धुआँ उड़ाया और मन-ही-मन दोस्त को धन्यवाद दिया, जिसकी सलाह पर उसने अपना ट्रांसफर कराया था।
उसे खुद पर अचंभा हुआ कि उसने लगातार पाँच साल तक अपना षोषण क्यों होने दिया। ट्रांसफर वाली बात उसके दिमाग में इतनी देर से क्यों आई?

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