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लघुकथाएँ - संचयन - कुलदीप जैन
विद्रोही मन

जब मैं उठने को हुआ तो वह बोले, ‘‘तुम आ जाते हो तो लगता है जैसे मेरा बेटा आ गया हो। मैं तुम दोनों में कोई भेद नहीं समझता। सुनील इतना निष्ठुर क्यों हो गया है रे। विदेश जाकर बाप को इस तरह भुला देना। षायद उसे मेरे बारे में गलतफहमी है।’’
‘‘नहीं ऐसा तो कोई बात नहीं चाचाजी, दरअसल वह इस देश में सर्विस करना ही नहीं चाहता।’’ मैं सरासर झूठ बोल रहा था।
‘‘हाँ बेटा, यहाँ तो नेता, समाज, सब कोई सपोले हो गए हैं।’’ यह कहते ही उन्होंने बीड़ी का जोर का कश लिया। तुरंत धुएँ के अंबार के साथ उनकी हंकार वाली खाँसी शुरू हो गई। मुँह लाल हो गया और आँख से पानी निकलने लगा, ‘‘चाचाजी, तुम इतनी बीड़ी मत पिया करो। एक तो फेफड़े पहले ही कमजोर हैं।’’
‘‘अरे बेटा, इस जिंदगी से तो मरे भले। पर ये मौत भी तो माँगे नहीं मिलती। अब तुमसे क्या-क्या छिपाऊँ। उस अस्पताल की डॉक्टरनी ने पूरे हजार माँगे थे हमल (कच्चा गर्भ) गिराने के। मैं तो रेणु की शादी के लिए भी तैयार था, पर लड़का साफ मुकर गया कि रेणु का उसके साथ कोई वास्ता नहीं है। बाद में मोहल्ले वालों ने एक स्वर से कहा कि मैंने ही बेटी को मारा है। मेरे उससे नाजायज संबंध थे।’’
‘‘ये दुनिया बड़ी जालिम है चाचाजी। रेणु को लेकर मुझ पर भी कीचड़ उछाली गई थी,तभी तो मैंने इस घर में आना बंद किया था।’’
तभी दरवाजे पर ठकठक हुई मैंने आँगन में जाकर बाहर के किवाड़ खोले। भरी-पूरी तंदुरुस्त जवान लड़की ।रंग साँवला और कसकर गूँथी गई चोटी को उसने आगे की ओर डाला हुआ था। मुझे देखते ही उसने अपनी पीली चुन्नी को वक्षस्थल पर फैला दिया और बिना हिचक अंदर दाखिल हुई।
‘‘कल्लो, जरा दो कप चाय बना लाना?’’ मास्टर ने नमस्ते करने के बाद उसे आदेश दिया। कल्लो उसी क्षण रसोई में चली गई। मैंने देखा, चाचाजी की आँखों में कोई चमक साकार हो उठी थी। वह बोले, ‘‘इसकी माँ भी चौका बरतन करती है। उसका आदमी नंबर एक जुआरी और शराबी है। उसने चार सौ रुपये में किसी आवारा आदमी के साथ बाँध दिया। उसके पहले ही एक बीवी थी। उसने कल्लो से धंधा कराना षुरू कर दिया तो ये अपने माँ-बाप के पास भाग आई। अब इसके पास एक बच्चा है।’’ यह सब कहते-कहते उनकी धौंकनी चलने लगी थी। कुछ क्षण रुककर वह बोले,‘‘बेचारी बेसहारा है। आजकल मैं इसे पढ़ाने भी लगा हूँ । कुछ सीख लेगी तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी।’’
चाय पीकर मैं उठा तो चाचाजी मुझे दरवाजे तक छोड़ने आए और मेरे नमस्कार कहने पर सिर हिलाकर बोले, ‘‘आते रहा करो अजय।’’ तभी मैंने धड़ाक से दरवाजा बंद होने की आवाज सुनी।

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