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लघुकथाएँ - संचयन - कुलदीप जैन
धंधा पानी
जब कर्फ्यू में दो घंटे की ढील दी गई तो गली-मोहल्लों में जादू भरी चहल-पहल शुरू हो गई। लोग पुलिस और सेना की उपस्थिति को नजरअंदाज करते हुए खरीद-फरोख्त कर रहे थे। दूकानदार मनमाने दाम वसूल कर रहे थे। यहाँ तक कि पुलिस वाले भी बढ़े हुए दाम देकर बीड़ी-सिगरेट खरीद रहे थे।
एक पुलिस वाला दूसरे से कह रहा था, ‘‘यार, इन आठ दिनों में मैंने ढाई हजार रुपया कमा लिया। काम बस इतना ही था कि अगर किसी ने सौ ग्राम दूध या बीड़ी का बंडल भी मंगवाना चाहा तो मैं हर फेरे में पांच या दस रुपए वसूल कर लेता था।’’ ‘‘बस पाँच रुपये ही’’, दूसरे सिपाही ने आष्चर्य से कहा, ‘‘मैंने तो अब तक छह हजार रुपए कमाए हैं। मैं तो अमीरों की कोठियों और पॉश कालोनियों में जाता था। वे लोग शराब आदि मँगवाते थे। मैं हर फेरे के सौ रुपए झाड़ लेता। भगवान ऐसे कर्फ्यू बार-बार लगवाए।’’
उनकी बातचीत को एक मिलिटरी मैन बड़े ध्यान से सुन रहा था। वह बोला, ‘‘दोस्तों, हस्तक्षेप के लिए माफी चाहता हूँ। तुमने जो ये कमाई की है, उसे उन गरीब-मजदूरों को बाँट देना, जिसके यहाँ दो जून का खाना मुष्किल से बनता है।’’
उन दोनों सिपाहियों ने मिलिटरी मैन को ऐसा देखा, जैसे वह कोई गुंडा हो।
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