लाइब्ररियन साहब एक संकुचित से होते चले जा रहे विद्यार्थी को ‘डिग्निटी ऑफ लेबर’पर लंबा–चौड़ा व्याख्यान दे रहे थे। साथ ही, महापुरुषों के जीवन से उद्धरण जुटाकर अपने भाषण को परिपुष्ट और जीवंत भी बना रहे थे।
इतने में ही एक अध्यापक आए। लाइब्रेरियन साहब से बोले, ‘‘आप लाइब्रेरी की तरफ जा रहे हैं क्या?’’
‘‘हाँ , हाँ , कोई काम?’’
‘‘मुझे जरा जल्दी बस पकड़नी है। क्या यह किताब लौटा देंगे?’’
‘‘लाइब्रेरियन ने अनचाहे वह पुस्तक पकड़ ली।’’
उन्होंने चपरासी को बुलाया। उसे किताब देकर कहा, ‘‘साहब की यह किताब लाइब्रेरी में वापस कर आओ।’’ इतना कहकर वे स्वयं भी लाइब्रेरी की ओर चल दिए।
अध्यापक को यह दृश्य अजीब–सा लगा। उन्होंने वह किताब चपरासी के हाथ से छीन ली और स्वयं वापस करने लाइब्रेरी में घुस गए।
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