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लघुकथाएँ - संचयन - हरिमोहन शर्मा
हिचकियाँ

इससे पहले भी मैं इसी नौजवान को भीड़ से घिरा कोरी सहानुभूति बटोरते देख चुका था।
आज भी, सांझ के झुटपुटे में एक पॉश कॉलोनी के राज्य से लगने वाले सफेदपोशों और साइकिल सवारों की भीड़ को रिते देखा। सोचा, कोई एक्सीडेंट हो गया होगा।
थोड़ा कौतूहल जागा।
भीड़ के अंदर गया। लगा, यह तो वही आदमी है, जो सिर झुकाए, पेट पकड़े और कंधे पर मैले–कुचैले कपड़ों से भरे बैग को लटकाए फड़फड़ा रहा है। उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, जैसे कई दिन से खाना न खाया हो।
इससे पहले इसी नौजवान के साथ टी एक घटना मेरे दिमाग में कौंध गई।
एक क्षण को लगा–कहीं यही तो इसका पेशा नहीं, पर आसपास की भीड़ तथा उसके पेट को निरंतर पकड़े निरंतर दुहरे होते चले जाने और उसकी सूखी हिचकियों की कड़कड़ाहट ने मुझे कोसा।
मैं अपने को बहुत गिरा हुआ महसूस करने लगा। मुझे लगा कि मैं उसकी मजबूरियों को भी अपने भरे पेट के कारण हंसी में उड़ा रहा हूँ।
आज भी कोई उसे पानी पिलाकर खूब रुपया दे रहा है तो कोई तसल्ली से बैठ सुस्ताने के लिए कह रहा है। वास्तव में वह चलते–चलते बेहोश हो गया था।
‘‘मैं तो नौकरी के लिए इधर आया था। पेट में बहुत ‘पेन’ हो रहा है।
‘‘मुझे पैसे नहीं लेने, अच्छा नहीं लगता।’’ वह बुदबुदाया।
वह डगमगाता हुआ आगे बढ़ने लगा। भीड़ उसे निहारने लगी।
भीड़ में बहुत सहानुभूति प्रदर्शित करने वाली कुछ सभ्य–सी लड़कियाँ, जो शायद शाम की सैर को निकली थीं, किसी से कह रही थीं, ‘‘भाई साहब, उसे रोक लीजिए। वह बीमार है। पास ही डॉक्टर को दिखा लेते हैं।’’
वह आगे जा चुका था। भीड़ छँटने लगी थी। एक साइकिल सवार उसकी ओर बढ़ा। उसे समझाया कि वह थोड़ी देर आराम करे। दवा ले। तब आगे जाए। उसने फिर धीरे से कहा, ‘‘पेट में बहुत ‘पेन’ हो रहा है।’’ और चलता रहा।
साइकिल–सवार के कहने से वह धीरे–धीरे उन लड़कियों की तरफ आया। भीड़ में सिर्फ़ वे लड़कियाँ और साइकिल वाला ही रह गया था। शायद सबके कौतूहल की शांति हो चुकी थी।
समीप वाले डॉक्टर के दरवाजे पर वह बैठ गया। लड़कियाँ अंदर गईं। लड़कियों ने उसके दुख का बयान किया। डॉक्टर ने सिर उठाया, क्रूर भाव से देखा। अंग्रेजी में निरपेक्ष भाव से बोला, ‘‘आप सामाजिक रूप से जाग्रत हैं तो आप उसे अपने घर ले जाइए। वहाँ से मुझे कॉल कीजिए। मैं आकर देख लूँगा।’’ उसके स्वर में कटुता घुली जा रही थी।
लड़कियाँ एक–दूसरे का मुँह देखने लगीं। दोनों ने आपस में कुछ खुसरपुसर की और बाहर निकल आईं।
वह धीरे से खड़ा होने लगा। उन लड़कियों ने उससे कहा कि अस्पताल पास ही है। वहाँ दिखा लो। उन्होने दस रुपये का नोट उसे दिखाया।उसने नोट लेने से इन्कार कर दिया पर उन्होंने उसे उसकी बुशर्ट की जेब में ठूँस दिया और विपरीत दिशा में चली गईं।
वह धीरे–धीरे आगे बढ़ता चला गया। थोड़ी ही देर में आँखों से ओझल हो गया, पर उसकी सूखी हिचकियाँ अब भी मेरा पीछा कर रही थीं।
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