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लघुकथाएँ - संचयन - हरिमोहन शर्मा
अनिष्ट

घर में अनेक पत्र आते हैं, किंतु इस पत्र को पाकर वह एकाएक चिंतित हो गया।
पत्र बहुत लंबा–चौड़ा नहीं था। उसमें आग्रह किया गया था कि पत्र पाने वाला इसी पत्र के समान श्री वेंकटेश्वर भगवान का गुणगान करते हुए पच्चीस इष्ट मिखें को तीन दिन के अंदर पत्र लिखे, जिससे उसे श्री वेंकटेश्वर की कृपा से अनेक लाभ होंगे, अन्यथा अनिष्ट की आशंका भी उसमें प्रतिध्वनित थी। पत्र भेजने वाले का नाम वहाँ नहीं लिखा था।
प्रगतिशील विचारों का होने के कारण वह अपने घर–परिवार वालों या मित्रों को उस आशय का पत्र नहीं लिखना चाहता था, किंतु अनिष्ट की आशंका उसे सता जाती थी।
वह पत्र की लिखावट देखकर यह पहचानने की चेष्टा करने लगाकि उसे यह पत्र किसने भेजा है? बहुत जोर डालने पर उसे अपने अत्यंत प्रिय प्रगतिशील और बौद्धिक मित्र की लिखावट पहचान में आने लगी। उसका द्वंद्व और बढ़ गया–
उसका एक मन अत्यंत दृढ़ता से इसकी मुखालफत करता उसे ढाँढस दिलाता रहा कि यह सब ढकोसला है, पर कहीं मन का एक कमजोर कोना उसे उसी प्रकार पत्र लिखने के लिए कहता। कौन–सा वहाँ नाम लिखना था। इसी परेशानी में वह सब काम करता रहा तथा तीसरा दिन उसके सिर पर आ पहुँचा।
तीसरे दिन बस के न मिलने के कारण वह ऑॅफिस देरी से पहुँचा। और उसे अपने बॉस की तीखी नजरों का सामना करना पड़ा। उसने इसे उस अनिष्ट की पहली कड़ी समझा। परेशानी से मुक्त होने के लिए उसने पत्र की घर जाकर पच्चीस प्रतियाँ फोटोस्टेट कराने का निर्णय ले लिया।
घर पहुँचते– पहुँचते उसके बौद्धिक मन ने उसे खूब लताड़ा। उसने उस पत्र को कागजों के ढेर में कहीं नीचे छिपा दिया और भूलने का प्रयास करते–करते सो गया।
लगभग दस दिन बाद कोई कागज ढूँढते हुए उसे वह पत्र फिर मिला। अचानक उसे पिछले दस दिनों का लेखा–जोखा याद आ गया, जिसमें प्राय: सामान्य जीवन जिया गया था, कुछ नरम, कुछ गरम।अनिष्टकारी कहीं कुछ नहीं घटा था।
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