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लघुकथाएँ - संचयन - हरिमोहन शर्मा
सिद्धार्थ

सुबह–सुबह दूध लेने जा रहा था। मेरे पड़ोसी दो पट्टे बंद कुत्तों को लिए हुए घुमाने या सैर कराने का प्रयास कर रहे थे। वे कुो कुछ विचित्र किस्म के इसलिए थे कि उनकी कद काठी आम हिंदुस्तानी कुत्तों के समान नहीं थी। वे चितकबरे और कुत्तों से बड़े भयानक जानवर का एहसास दिलाते पड़ोसी को दो तरफ खींच रहे थे।
कुत्ते जिस तरफ देखकर गुर्रा रहे थे, वहाँ एक छोटी–सी भीड़ जमा थी। पास ही एक कार खड़ी थी। मैं उत्सुकतावश भीड़ के पास पहुँचा और देखा। कि एक पिल्ले को चारों ओर से घेरकर लोग खड़े थे। वह संभवत: कार के नीचे आ जाने से लंबी–लंबी साँसें ले रहा था।
धीरे–धीरे भीड़ छँटने लगी। मुझे लगा कि कोई आवारा पिल्ला है। पिल्ले के मालिक जैसा कोई प्राणी उधर नहीं आ रहा था। कार वाले ने धीमे से कहा कि अब यह बचेगा नहीं। उसे वहीं छोड़कर वह अपनी कार में बैठ सर्र से निकल गया।
मैं उदास भारी मन लिये दूध के डिपो पर पहुँचा और दूध लेकर उसी रास्ते से घर लौटने लगा। पिल्ला अभी भी वहीं पड़ा था।
तभी मैंने देखा कि कपड़े प्रेस करनेवाली का चार साल का बच्चा हाथ में पानी का गिलास लिये उस ओर बढ़ रहा था। वह पिल्ले के पास आया और लगभग उसका मुँह पकड़कर पानी पिलाने का प्रयास करने लगा। बिना जाने–बूझे कि वह जिंदा है या मर गया।
बच्चे के हाथ का स्पर्श पाकर पिल्ले ने आँखें खोली और पानी पीने लगा। पिल्ला मरा नहीं था और शायद मरेगा भी नहीं।
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