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लघुकथाएँ - संचयन - राजकुमार गौतमेदी
असल बात

तब पूरे गाँव में हल्ला मच गया था । कोई बिगड़ा हुआ हाथी घरों में घुसकर सब कुछ तहस–नहस करता चला आ रहा हो! उस बच्चे को देखने गाँव के सभी लोग मानो अपनी लंगोटी हाथ में थामे ही दौड़ पड़े थे। औरतों के बीच की शर्म–लिहाज ओसकी तरह उड़ चुकी थी। बड़े मोहक लटकों से युक्त उनका वार्तालाप जारी था–
‘‘दलोल चमार के तो भाग जाग गए.....सुन्नू पंडत क्या अपणा बीज इधै–उघै डालता फिरै....योंतो कहो, अक उस चमार के ही छम्मकछल्लो ई अच्छी थी....जातक की शकल भी देक्खो, ऐन–सुन्नू पंडत सै ई मिलै....! वारे दलेल सै तो इतना भी न हुआ, अक इस होल्लर का एक पैर तो अपणै आप बणा देता.....ही! ही! ही!!!’’
‘‘सारी बात तो रूपौं की है.....सुन्नू पंडत अपणे घर के फुट्टे ढोबरे भी बेच दो तो इतने पैसे आ जांगे अक उस दलेल कू उसकी माँ समीत खरीद कै रख दे।...अर, इसमैं जो बाजी बदी, वो बदी रूपौं और लहंगे के बीच! अर बोब्बो, रूपा तो लहंगे कू फाड़ कै भीतर घुस ई जावै !....ही....ही....’’
कुछ दिनों के बाद सब कुछ नाटकीय तरीके से बदला। सुन्नू पंडत के यहाँ तगडी डकैती पड़ गई और इस दुर्घटना में हुए परिवार के कई घायलों के इलाज, फिर क्रियाक्रम और श्राद्ध में सुन्नू पंडत की सारी जमीन–जायदाद, शहरवाले सेठ त्रिलोकीचंद जैन के हत्थे चढ़ गई।
सुन्नू पंडत गाँव में ही इधर–उधर बेगार करने पर पहले उतारू और फिर मजबूर हो गया।
उधर, दलेल चमार को पहले सरकार से जमीन मिली, बाद में उसने खुद कुछ और जमीन खरीदी। फिर एक ‘हरिजन को–ऑपरेटिव सोसायटी’ का पैसा हजम करके वह भूतपूर्व सुन्नू पंडत से भी बड़ा आदमी बन गया।
दलेल का लड़का अब जवान हो चुका था और सुन्नू पंडत जवान पुत्र–वधू ने जैसे ही पहला बच्चा जना कि गाँव में एक बार फिर हो–हल्ला मच गया, ‘‘सुन्नू पंडत का पौत्ता बिलकुल दलेल के लौंडे हरबंस की शकल पै गया....’’
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