अफसर ने उसे बुलाया और बहुत हलके मिजाज से कहा, ‘‘सुनो मिस्टर आनंद! ये सामने बरोट साहब बैठे हैं। उनका सत्रह हजार रुपए का एक बिल तुम्हारे पास पैंडिंग है, उसे पास करके ले आओ।’’
‘‘ सर, उस पर तो हमने हेडक्वार्टर की एडवाइस के लिए लिख हुआ है।’’
‘‘ठीक है, आब्जर्वेशंज सेटल कर दो। हेडक्वार्टर को भी कॉपी भेज दो और....काम एक तरफ करो।’’
‘‘मैं ऐसा नहीं कर सकता, सर!’’
‘‘व्हाट?’’
शाम तक आनंद को जवाबतलबी का फड़का मिल गया था, जिसमें उससे पूछा गया था :
‘‘कार्यालय में गप्पें हाँकने, अन्य कर्मचारियों को प्रशासन के खिलाफ भडकाने, रिश्वत लेने की शिकायतें, गैर–सरकारी लोगों के प्रभाव से अवैध लाभ उठाने आदि के संदेहों में आपके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए?’’
आनंद ने स्पष्टीकरण लिखा और तमाम संबंधित सूचनाओं के साथ उसकी प्रतिलिपियाँ प्रधानमंत्री, विभागीय मंत्री तथा यूनियन के पदाधिकारियों को भी भेज दीं। अफसर को चुप हो जाना पड़ा।
अफसर ने आनंद की गोपनीय वार्षिक रिपोर्ट खराब कर दी। सालाना तरक्की नहीं मिली तो आनंद ने तनख्वाह लेनी छोड़ दी। यूनियनवाले आनंद को सपोर्ट करते रहे, मगर अफसर टस से मस नहीं हुआ। बरोट साहब का केस इंक्वायरी के लिए गुप्तचर विभाग को सौंप दिया गया।
एकाध महीने में ही आनंद का परिवार भूखों मरने लगा। मजबूरन आनंद सपरिवार आमरण अनशन पर बैठ गया। अखबार तथा दूसरे जन–प्रतिनिधियों ने आनंद की स्पष्ट तरफदारी की।
अफसर की पिछली पोलें भी खोली जाने लगीं। नतीजतन,आनंद की सालाना तरक्की बहाल कर दी गई तथा अफसर ने सार्वजनिक रूप से उससे माफी माँगी। फलों के रस का गिलास अपने हाथों से आनंद को देते हुए अफसर बुदबुदाया, ‘‘फाँसी पर लटकवाने की पावर्स ही मेरे पास नहीं हैं.....!’’
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