महीने का पहला इतवार था। सौदा–सुलफ लेकर पालसिंह शहर से लौट रहा था। बढ़ती महँगाई से परेशान पालसिंह के पंजे साइकिल–पैडिलों के उठे हुए फन भी नहीं दबा पा रहे थे।
फर्जी मेडिकल क्लेम्स, एल.टी.सी. फंड से लिया टेंपरेरी एडवांस, सभी का ‘कमाया’ पैसा इस महँगाई की लंबी जीभ चाट जाती थी। पूरी तनख्वाह को जेब में डालकर वह शहर गया था और मात्र राशन–पानी का ही अविश्वसनीय रकम का बिल बनिए ने बनाकर उसके हाथों में थमा दिया था। अब पालसिंह के पास उतने रुपए भी नहीं बचे थे, जितने कि महीने के शेष दिन। और आज तारीख थी सिर्फ़ तीन!
पालसिंह ने देखा, सड़क पर कुछ आदमी जमा हैं। सड़क के किनारे ही सलेटी रंग की एक कार खड़ी है, जिसका एक दरवाजा खुला हुआ है। करीब जाते–जाते पालसिंह को लगा कि कार जानी–पहचानी है। उसने अपनी साइकिल को एक पेड़ से उलझाया और करीब–करीब दौड़ते हुए भीड़ में घुस गया। पालसिंह की आशंका सही थी–डायरेक्टर साहब ही थे!
पालसिंह सब कुछ भूल गया। डायरेक्टर साहब बेसुध–से कार की सीट पर पड़े हाँफ रहे थे। उसने साहब के जूते उतारे। उनके तलवों पर मालिश की। गाड़ी को एक तरफ लगवा दिया। पास के पर से पानी लाया, साहब को दो घूँट पानी निगलवाया।
एक टैक्सी को रोककर साहब को अपने घर ले गया.....साइकिल पर जाकर शहर से एक अच्छे डॉक्टर को बुला लाया.....पालसिंह के घर में सफाई की गई....साब के लिए जूस लाया गया...मोहल्ले–पड़ोस में उसकी अस्थायी धाक जम गई....साहब ने डॉक्टर से हँस–हँसकर बातें की...बताया,‘‘कभी हलका–सा फिट आ जाता है तो कुछ देर के लिए सेंसलेसनेस फील होती है.....फॉर ऐ लिटिल...नाव नो ट्रवल .....अब बिलकुल ठीक हूँ।’’
कार में बैठने से पहले पालसिंह के कंधे पर हाथ रखकर, ‘‘थैंक्यू, थैंक्यू वेरी मच’ कहाँ एक बच्चे को पास बुलाकर उसका नाम भी पूछा साहब ने। इस दो घंटे के झमेले में पालसिंह की जेब में रेजगारी के चंद सिक्के ही बचे रह गए थे। अगले दिन पालसिंह की जेब में रेजगारीके चंद सिक्के ही बचे रह गए थे। अगले दिन पालसिंह दफ्तर गया। जेब खाली होने के बावजूद वह उत्साहित था। बराबर की सीट वाले साथी को सारा कुछ वृत्तान्त बताया। बराबरवाले ने अपने बराबरवाले को बताया। कुशल–क्षेम पूछने के बहाने चमचे लोग साहब के पास पहुँच गए।
‘‘किसने बताया तुम्हें?’’
‘‘सर, वो मिस्टर पालसिंह हैं ना...रिकॉर्ड सेक्शन में!’’ थोड़ी देर बाद पालसिंह के अंडमान–निकोबार क्षेत्र के लिए स्थानांतरण के आदेश आ धमके।
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