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लघुकथाएँ - संचयन - राजकुमार गौतम
तयहार

बड़ी की शादी के बाद से तो हाथ बहुत ही खिंच गया। बाप–बेटे दोनों कमाऊ,तब भी कर्ज में उनका बाल–बाल बिंध गया। उधार ली रकम पर दो सौ रुपए महीने का सूद।
खाली कनस्तर और टीके के बचे हुए गोलों, बताशों तक को बेचने का भी नंबर आ गया। बड़ी ससुराल तो गई, पर ब्याह की साड़ी के पल्ले से सब कुछ मानो सकेर–बुहारकर भी ले गई।
‘‘चलो जी...धन्न भाग....लौंडिया के फेरे फेर दिए। ईश्वर दो बखत रूखी रोटी खाकै करज पाट दें.....बस्स! छोटी की बात तो चार–पाँच बरस अभी और खिंच जाएगी।’’ कहती माँ हाथों का दोहत्थड़ माथे पर पटक लेती।
लेकिन रूखी–सूखी ही नहीं, काफी कम खाकर भी दो रुपए का माहवारी सूद मुश्किल से जुटा पाते। असल रकम में से तो कम होने की कहीं शुरुआत तक नहीं! चिंता इतनी अधिक कि बाप–बेटे के कपड़े ढीले हो चले थे और माँ तथा छोटी के कपड़ों में शीघ्र फटने की होड़ पड़ोसियों की जुबान तक चढ़ गई थी।
कोई भी त्योहार आता तो सारा परिवार थर्रा जाता। युद्ध –स्तर पर कुछ शगुन जुटाया जाता और पुटलिया सँभालकर बेटा बड़ी की ससुराल पहुँच जाता। पहले साल के त्योहार तो तरीके से बाकायदा ही होने थे। इसी बीच रक्षाबधंन आ गया।
बड़ी–छोटी को लेकर पहले चर्चा–युद्ध छिड़ा। युद्ध भी इकतरफा। बड़ी के लिए ही कुछ नहीं हो पा रहा था तो छोटी का कैसा जिक्र! राखी पहुँचे कई दिन हो चुके थे और कल हर हालत में बड़ी की ससुराल जाना था। युद्ध–स्तर पर मेहनत करके फिर कुछ जुटाया गया।
बेटा छोटी को हर राखी पर इतना देता कि साल–भर के लिए उसके पर्याप्त कपड़े बन सकें, लेकिन इस बार उसके लिए बचा था–सिर्फ़ दो रुपए का एक नोट! छोटी ने भाई को राखी बाँधी। भाई ने दो का नोट उसे थमा दिया।
“”इसे वापस ही रख लो। रिक्शे से चले जाना। इस धूप में दो मील कहाँ पैदल चलोगे!’’
छोटी के स्वर में शिकायत नहीं थी! हाँ, आँसुओं की दो नीली बूँदे छोटी की आँखों से कुछ दूर बहकर ठहरी हुई थी।
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