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लघुकथाएँ - संचयन - कुमार नरेन्द्र
लगाम

बारात चलते–चलते अचानक रुक गई। बैंड का बजना बंद हो गया। एकाएक चारों तरफ खामोशी छा गई।
सभी बाराती लगाम वाले को घेरकर खड़े हो गए, जो कि मात्र बारह वर्षीय बालक था। हुआ यूँ कि दूल्हे के बहनोई घोड़ी की लगाम पकड़ कर अपना फोटो खिंचवाना चाह रहे थे।
बालक ने नजराने के तौर पर 11 रूपए माँगे थे, जिसे देने से बहनोई साहब इंकार कर रहे थे। बालक ने दो–तीन बार फिर आग्रह किया....खैर! उन्होंने गुस्से में आकर दो–तीन थप्पड़ बालक के जड़ दिए और बालक की कटोरे जैसी आँखों में से सहज रूप से आँसू झरनेलगे। इस क्रियाकलाप को बैंड मास्टर देख रहे थे, उन्हें भी यह सब अप्रिय लगा, सो विद्रोह–स्वरूप बैंड का बजना तुरंत बंद हो गया।
...झगड़ा बढ़ता देख बिचौलिए किस्म के लोग अपने–अपने छज्जों से नीचे सड़क पर उतर आए। फैसला था कि होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अंतत: दूल्हे के पिता ने उसे पाँच रुपए थमा दिए, परंतु लड़के ने लेने से इंकार कर दिया। बारातियों व अन्य लोगों को लगा–लड़का बस यूँ ही समझौते के लिए तैयार हो गया।
....राम–नाम लेते बैंड फिर बजने लगा। बारात आगे खिसकने लगी।....पर यह क्या..?
बालक ने लगाम को, एक झटका, जोर से दिया.....और देखते ही देखते दूल्हे मियाँ और सात वर्षीय भतीजा नीचे सड़क पर घड़ाम से आकर गिरे।
बैंड था कि रुकने का नाम ही न ले रहा था।

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