बाबू मंसाराम को बस–स्टैंड पर खड़े–खड़े पौना घंटा हो गया था मगर उनके रूट की डी.टी.सी. की एक भी बस अभी तक न आई थी। अब उनको जोरों की प्यास लगी थी। पैंट की दायीं जेब टटोली–सिर्फ़ अठन्नी थी। उन्होंने विचार बनाया–एक गिलास पानी पीते हैं दस पैसे का, बाकी 40 पैसे टिकट के लिए। अगर खुल्ले 40 पैसे होंगे तो खचाखच भरी बस में टिकट भी जल्दी और आसानी से मिल जाएगी, सो इसी ख्याल से वे पानी की टंकी के पास पहुँचे, ‘‘एक गिलास पानी देना भैया!’’ उनकी धीमी–सी आवाज निकली और वे पानी को गटागट एक ही साँस में पी गए।
‘‘और दूँ बाबू!’’ टंकीवाला बोला।
‘‘नहीं भैया!बस....बुझ ही गई प्यास।’’ बाबू मंसाराम ने अतृप्ति का भाव लिये उसको अठन्नी देते हुए कहा।
‘‘नहीं बाबू! इस टंकी पर फ़्री में पानी मिलता है, रामलाल किशनलाल साड़ी वालों की तरफ से।’’ टंकी वाले ने अठन्नी लौटाते हुए कहा।
‘‘अच्छा! कब से?’’ उनका मुँह खुला का खुला रह गया।
‘‘आज ही से।’’ टंकीवाला विनम्रता से बोला।
‘‘यह तो बड़ा पुण्य का काम है भैया!’’ बाबू मंसाराम ने श्रद्धाभाव से कहा, ‘‘ला, एक गिलास और पिला दे।’’ कहते हुए उन्होंने अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ा दिया।
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