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लघुकथाएँ - संचयन - कुमार नरेन्द्र
शोषण–दर–शोषण

विविध भारती से ‘रंगावली’ कार्यक्रम के अंतर्गत बज रहे किसी नग्मे को रोकर आपातत: एक विशेष समाचार प्रसारित होता है.....राष्ट्रके एक महान् नेता (?) का निधन!.....विश्ववासियों के हृदय में शोक की लहर....! फिर उसके बार शोक–धुन बजनी प्रारंभ हो गई।
..अब आठ बजे वाले समाचार आ रहे हैं–...सात दिनों तक राष्ट्रीय शोक मनाया जाएगा।...सरकारी कार्यालय एवं शिक्षण–संस्थाएं बंद रहेंगी ....राष्ट्रीय ध्वज...
ये सुनकर मैं जूतों के तसमे ढीले करने लगता हूँ। पिताजी चाय पीते हुए खबरें बहुत ध्यान से सुन रहे हैं। प्याले पर अंगुलियों की पकड़ कुछ गहरी होती जा रही है और साथ ही माथे पर सोच की रेखाएँ भी!... अचानक बत्ती चली जाती है। छोटे से कमरे में शान्ति का वातावरण स्थापित हो गया है। कुछ देर बाद पिताजी मेरी तरफ देखते हुए कहते हैं:
‘‘आज तुम खाली हो, लता, को दो–चार घंटे हिसाब पढ़ा देना.....काफी कमजोर है! और ये कहते–कहते वे कुर्सी से उठ दरवाजे की ओर बढ़ गए।’’
‘‘पिताजी! आप टिफिन लेकर कहाँ जा रहे हैं?’’ मैं झटके से टोकता हूँ।’’
‘‘काम पर बेटे!’’ उन्होंने शंका का का समाधान किया।
‘पर अभी तो छुट्टी क्यों?.....अगर हम लोगों की छुट्टी कर दी गई तो ‘मालिकों’ का शोषण नहीं हो जाएगा....और यदि उनका शोषण हो गया तो सरकार नाराज हो जाएगी?’’ और फिर रिस्ट वॉच को देखते हुए बोले, ‘‘क्योंकि हमारी सरकार शोषण के विरुद्ध है।’’
मुझसे कोई उत्तर नहीं बन पाया और मैं बात को चुप्पी से पचा गया!....सीढि़यों से उतरते हुए पिताजी के जूतों की आवाज देर तक मेरे हृदय में कीलें ठोकती रही।

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