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लघुकथाएँ - संचयन - मधुकान्त
चेतना

हल्का होना अनिवार्य है। पत्नी पर बस न चले तो नौकर पर...चाहे जिस किसी पर भी।
गोदाम में आए तो सेठजी ने पहरेदार पर हल्का होना चाहा–
‘‘अरे हरामजादे हरकू....! अकल मारी गई तेरी....देखता नहीं सारा अनाज धरती में गिरता जा रहा है।’’
‘‘क्या करूँ सेठजी, बोरी फटी हुई है।’’ नम्रता से उत्तर दिया गया।
‘‘अबे गधे, हाथ क्यों नहीं लगा लेता। गल जाएगा क्या? शाम को चार रुपये के लिए तो हाथ बड़ी जल्दी फैला देगा और काम धेले का नहीं। स्वर पहले से अधिक कर्कश हो गया था।
जमीन ही कम थी जो पल्लेदारी भी करनी पड़ती थी। बोझ से निकलकर नजर सेठ की तोंद का परिमाप करने लगी–हर साल बढ़ता है, लेकिन वह अनाज पैदा करके, सिर पर उठाकर भी अपने ही अंदर सुकड़ता जा रहा है।
‘‘अरे रुक क्यों गया पाजी! देखता नहीं बादल चढ़ आए हैं, जल्दी माल उतार!’’ बादलों की गरज से सेठ का स्वर दब गया था।
‘‘अब मुझसे नहीं उठती बोरी सेठजी!’’ वहीं उतार दिया हरकू ने बोझ को।
‘‘नहीं उठती...क्यों? मेरा सारा माल खराब हो जाएगा...चल तुझे शाम को एक रुपया फालतू दूँगा, जल्दी कर।’’ सेठ ने लालच फेंका।
‘‘नहीं सेठजी, मुझे भी जाकर अपनी छत को ठीक करना है। सारी टपकती है।’’
‘‘अबे रोटी कहाँ से खाएगा..?’’
‘‘रोटी तो मैं ही पैदा करता हूँ।’’ कहकर हरकू बाहर निकल आया। पानी गिरने लगा। सेठ ने बहुत लालच दिया पर कोई मजदूर काम पर नहीं आया।
सामने गरीब बस्ती में मजदूर अपनी छतों पर मिट्टी चढ़ा रहे थे। वर्षा तीव्र होती जा रही थी।

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