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लघुकथाएँ - संचयन - मधुकान्त
आम बजट

धूप आग उगल रही थी। लाइनों के बीच में कोयला चुगते हुए उसके हाथ पसीना पोंछकर चेहरे को मटमैला बना रहे थे।
दूर छतरी लगी ट्रॉली में साहब लोग बैठे लाइनों को चैक कर रहे थे। रामू उनके लिए पानी लेने आया तो अपने खुले बालों को पीछे धकेले हुए छमिया ने पूछा–‘‘बाबू की के रहे थे रे रमुआ...?’’
‘‘अपनी बात कर रहे थे....’’
‘‘की.....?’’
‘‘सरकार के बजट मा कई करोड़ रुपया का घाटा हैगा।’’
‘‘करोड़ रुपया....किना होवे रे रमुआ.....?’’
‘‘बोरी भरवा...’’
‘‘बाबू लोग तनखाह देत....उसतो भी बेसी’’–आश्चर्य से उसके हाथ फैल गए।
‘‘बेकार बातों में टाइम ना खफा–जल्दी–जल्दी कोयला बटोर...अपन को बजट–वजट से की; ये सब साब लोगों के लिए है।’’
छमिया के हाथ तेजी से बुझी राख में कोयला खोजने लगे, लेकिन उसका दिमाग अभी भी करोड़ रुपयों को तोल रहा था।

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