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लघुकथाएँ - संचयन - मधुकान्त
शुरूआत

वह अपने शरीर से जब आधे कपड़े अलग कर चुकी तो बोली, ‘‘जरा जल्दी करो बाबू साहब!’’
‘‘मैं तुमसे कुछ जरूरी बातें करने आया हूँ।’’ खद्दरधारी ने अधटूटी–सी कुर्सी में धँसते हुए कहा।
‘‘धंधे का वक्त है बाबू....काम की बात करो। दूसरा ग्राहक इंतजार में है।’’ वह मशीन की भांति बोली।
‘‘मैं इसलिए यहाँ नहीं आया।’’ यह कह, वह उसके चेहरे के मनोभावों को पढ़ने लगा।
‘‘तो क्या इधर अपनी अम्मा को ढूँढ़ने आया है?’ बीड़ी का कश लेकर उसने आँखें तरेरीं।
‘‘मैं तुम्हें मुक्त कराने आया हूँ...नारी निकेतन पहुँचा दूँगा।’’ मुँह न लगाकर उसने अपनी बात स्पष्ट कर दी।
‘‘वहीं से तो यह धंधा शुरू हुआ था!’’ उसने खद्दरधारी की आँखों में आँखें डालते हुए सहजता से कहा।
खद्दरधारी गर्दन खुजलाते हुए भागने का बहाना सोच रहा था।

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