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लघुकथाएँ - संचयन - मधुदीप
अस्तित्वहीन नहीं

उस रात कड़ाके की सर्दी थी। सड़क के दोनों ओर झुग्गी बस्तियों के आसपास कोहरा पसर गया था।
रोज–क्लब के निकास–द्वार को पाँव से धकेलते हुए वह लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला। झट से उसके दोनों हाथ गर्म पतलून की जेबों के असर छूने लगे।
बरामदे में रिक्शा खड़ी थी। उसकी डबल–सीट पर पतली–सी चादर मुँह तक ढाँपे, चालक गठरी–सा बना लेटा था। घुटने पेट में घुसे थे।
रिक्शा देखकर उसका चेहरा चमक उठा।
‘‘खारी–बावली चलेगा....?’’ वह रिक्शावाले के समीप पहुँचा।
उधर से चुप्पी रही।
‘‘चल, दो रुपए दे देंगे।’’ युवक ने लालच दे उसके अंतस् को कुरेदा।
“ रुपैया से जियादा आराम की जरूरत है हमका।’’
‘‘साले! पेट भर गया लगता है....!’’ नशे में बुदबुदाता हुआ जैसे ही वह युवक आगे बढ़ा....
.....तड़ाक ...रिक्शावाले का भारी हाथ उसके मुँह पर पड़ा।
क्षण–भर को युवक का नशा हिरन हो गया। वह अवाक्–सा खड़ा उसके मुँह की ओर देख रहा था।
रिक्शावाला छाती फुलाए उसके सामने खड़ा था।

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