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लघुकथाएँ - संचयन - मधुदीप
सफेद चोर

होली का त्योहार पास था। थोड़े से रंग, पिचकारी का डिब्बा तथा गुब्बारों के कुछ पैकेट लिए वह बूढ़ा पटरी पर बैठा था।
‘‘पिचकारी कितने की है बाबा?’’ मैं उसके पास जा खड़ा हुआ था।
‘‘दो रुपए की।’’ पिचकारी मेरे हाथ में देते हुए उसकी जबराई–सी दृष्टि चारों ओर घूम रही थी।
अचानक एक भगदड़–सी मच गई, कमेटी....कमेटी.....। पटरी वाले अपना–अपना सामान समेटकर भागने लगे।
उसके कंपकंपाते हाथ अभी सामान समेट भी न पाए थे कि एक सिपाही डंडे से जमीन ठोंकता हुआ उसके सामने आ डटा।
‘‘.....साले, हरामजादे! तुम्हारी माँ...ये पटरी तुम्हारे बाप की है....’’ भी गालियों के साथ वातावरण में आतंक फैलने लगा।
वृद्ध ने अपने काँपते हाथों से उसकी मुट्ठी में कुछ रखा तो वह फिर एक बार डंडे से जमीन ठोंकता हुआ आगे बढ़ गया। वृद्ध की क्रोध भरी तिरस्कृत दृष्टि उसकी पीठ में धँसती जा रही थी।
मेरी हैरान आँखें अपनी ओर उठी देखकर उसके स्वर में तल्खी उभर आई–‘‘हरामी पिल्ले! साली गोरमेंट ने सफेद चोर पाल रखे हैं...।’’

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