गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
लघुकथाएँ - संचयन - अमरीक सिंह दीप
फ़ासिज़्म

‘‘तुम अंदर आ गए?’’ मेरी आँखें हैरानी से फटकर चिथड़ा हो गई थीं।
उसने बेहया ढंग से खींसे निपोर दीं।
उसके दाँत लंबे और पैने थे। तेज़ धार खंजरों जैसे खून से लिथड़े हुए। उसने जिंदा इंसानों को मारकर उनकी खाल के बनाए कपड़े पहन रखे थे। उसकी आँखों की पुतलियों पर उसके द्वारा अभी हाल हीमें गुजरात में की गई क्रूर और वीभत्स हिंसा के दृश्य थिरक रहे थे, उसकी सांसों में जिंद़ा फूँक दिए गए इंसानों की लाशों से उठने वाली चिरायंध भभक रही थी।
मेरा कलेजा उबक कर मुँह को आ गया। मैंने घबराकर चारों दरवाज़ों की ओर देखा। चारों दरवाज़े हमेशा की तरह मजबूती से बंद थे। ज़ाहिर था कि चारों दरवाजों पर तैनात पहरेदार अपनी–अपनी ड्यूटी पर पूरी चुस्ती मुस्तैद होंगे। यूँ भी चारों पहरेदार कोई मामूली पहरेदार नहीं थे। बहुत ही नामवर और जगविख्यात पहरेदार थे। एक दरवाज़े केबाहर गाँधीजी खड़े थे। दूसरे पर नेहरू तैनात थे। तीसरे पर भगत सिंह और चौथे पर लोहिया।
इन सबके होते हुए यह अंदर कैसे आ गया? हैरानी खुद हैरान थी।
मैंने फिर अपना सवाल दोहराया, ‘‘तुम अंदर कैसे आ गए?’’
वह मुझे एक दरवाजें के पास ले गया। उस दरवाजे़ के एक पल्ले में किताब के आकार का मोखा था। मोखे से उसने पहले मुझे बाहर निकाला फिर खुद भी बाहर आ गया।
इस दरवाज़े की पहरेदारी पर गाँधीजी तैनात थे। और गाँधीजी के हाथ में उनकी प्रिय धर्म पुस्तक थी।

                                                                          -0-

 
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above