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लघुकथाएँ - संचयन - अमरीक सिंह दीप
प्रेम

शक्कर काँच के खूबसूरत मर्तबान में थी। और पानी काँच के पारदर्शी गिलास में।
शक्कर इतरा रही थी, ‘‘मुझ जैसी मिठास है किसी के पास?’’ पानी हँसा, ‘‘खंड–खं डमें बंट गई हो फिर भी गुरूर नहीं टूटा। मुट्ठी में भरकर मुँह में डाल लो तो दाँतों तले रेत की तरह किरच–किरच करती हो। मुझे देखो, ईमानदार आदमी के चरित्र की तरह पादर्शी हूँ मैं। मुझ जैसा प्यास बुझाने वाला अन्य कोई द्रव है धरती पर?’’
जून के जल्लाद गर्मी वाले दिन। रसोई में काम करते हुए पसीने–पसीने हो रही स्त्री के काँच का मर्तबान खोलकर शक्कर निकाली और पानी के गिलास में डालकर उसने दोनों को घोल डाला।
शर्बत बनाने के बाद वह शर्बत का गिलास तश्तरी में रखकर बैठक में आ गई, जहाँ थका–माँदा ऑफिस से लौटा उसका पुरुष कुर्सी पर निढाल–सा पड़ा था।
कुर्सी के हत्थे पर बैठ स्त्री ने शर्बत का गिलास अपने पुरुष के होठों से लगा दिया।
जैसे–जैसे शर्बत का गिलास उसके पुरुष के कंठ से नीचे उतरता चला गया वैसे–वैसे स्त्री के शरीर में ठंडक और आँखों में गहरी तृप्ति भरती चली गई।
और इसी के साथ शक्कर और पानी का झगड़ा भी खत्म हो गया।

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