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लघुकथाएँ - संचयन - अमरीक सिंह दीप
थ्री पीस सभ्यता

वे दोनों भी टैंपू पर सवार थे। शराब में गुडुच। उनमें से एक टुन्न होने की स्थिति से भी आगे पहुँच चुका था और टैंपू की खिड़की पर सिर गिराए सीट पर रीढ़हीन जानवर की तरह बिछा हुआ था। शराब के आधिक्य के कारण उसका चेहरा सूजा हुआ था और गाल उबले हुए गोश्त जैसे हो रहे थे।
दूसरी अभी अपनी लिमिट में होने के कारण मुखर था, ‘‘कल यार, एक नेताजी के लौंडे की बड़ी फैंटास्टिक बारात एटैंड की थी मैंने। वधू पक्ष की ओर से वेज, नानवेज दोनों ढंग के खानों का बहुत बढ़िया इंतजाम था।’’
एक ठहाका। ठहाका नहीं ,अट्टहास। रामायण के अरविंद त्रिवेदी और महाभारत के गोगा कपूर के बीच की क्वालिटी का,‘‘अंग्ररेज़ी दारू कोल्ड ड्रिंक की तरह सर्व हो रही थी। मेजों पर सजी थी। हर कोई टुन्न। यार लोग पी भी रहे थे और कोट की जेबों में ठूँस भी रहे थे।’’
फिर ठहाका....सौरी अट्टहास! उसके बाद एक झेंपभरी गर्वोक्ति, ‘‘दो बोतलें एरेस्टोक्रेट की मैंने भी अपने थ्री पीस सूट की जेबों में टाँक ली थीं।’’
फिर अट्टहास मेरे मौका–ए–जरूरत के वक्त, इज्जत ढाँपने के लिए बनवाए थ्रीं पीस सूट की धज्जियाँ बिखेरता गया किमैं भी अपने ऑॅफिस के नेता के लड़के की बारात में ही शामिल होने जा रहा था।

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