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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन रत्नाकर





क्यों नहीं समझ सका  


जब पता चला कि मुझे ऑॅफ़िस की ओर से मुम्बई जाना है तो मेरी प्रसन्नता की सीमा नहीं रही ।काम के साथ साथ मैं अपने चचेरे भाइयों से भी मिल लूँगा ;जिन्हें मिले बरसों हो गए थे ।मैंने दोनों को होटल के पते के साथ सूचित कर दिया ।रात तक दोनों में से न किसी का फ़ोन आया न मिलने ।मैंने अगले दिन अरविंद को फ़ोन किया ।उसने हड़बड़ी में कहा," विपिन तुम्हारी ईमेल मिल गई थी ।यह पूरा सप्ताह ऑफिस में मेरी मीटिंग चलेगी ।रात देर से घर पहुँचता हूँ ।तुम्हारी भाभी भी देर से आती है ।फ़िर घर का काम,बच्चों की पढ़ाई उसे समय ही नहीं मिलता ।तुम ऐसा करो इस रविवार को घर आ जाना ।लंच हमारे साथ ही लेना ।मिल कर बैठेंगे।”
               मैंने बीच में बोल कर बताना चाहा कि मैं यहाँ केवल तीन दिन रुकने वाला हूँ ।लेकिन उसने मेरी बात की ओर ध्यान ही नहीं दिया ।कहने लगा," अच्छा तो फ़िर संडे पक्का रहा ।ओ के आफ़िस की बस निकल जाएगी ।"
              दूसरे दिन रवि को फ़ोन किया ।उसने थोड़ी देर इधर -उधर की बात की और बोला," हाँ, विपिन कमरा नम्बर कितना है,मैं शायद शनिवार तुमसे मिलने आऊँगा "
           अरविंद की तरह ही रवि ने भी मेरी बात नहीं सुनी ।
     यह महानगरों की विवशता है अथवा फ़ासलों की विवशता जो दिलों की दूरियाँ  बढ़ गई हैं,यह मैं क्यों नहीं समझ सका ।  

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