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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन रत्नाकर
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भ्रम
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मैं
सालों इस भ्रम में जीती रही कि बच्चे मुझसे बहुत प्यार कहतें हैं ।आठ वर्ष
एक लम्बा अरसा होता है,किसी को समझने का, किसीके साथ जुड़ने का ।दिन - रात
का साथ और फिर ख़ून का रिश्ता ।माँ कम और दादी उसे अधिक चाहिए थी ।छोटी थी
तो गोदी से उतरती नहीं थी,कहीं जाना होता तो साथ जाती ।मेरे साथ ही सोती।
स्कूल जाने लगी तो सुबह उठाना,तैयार करना,टिफ़िन बनाना,स्कूल छोड़ना,वापिस
लाना सब काम मैं ही करती।उसकी माँगें पूरी करना भी मेरा काम था ।लाड़ली थी
मेरी,मुझे अच्छा लगता ।लेकिन दादी जितना भी प्यार करे,फिर भी बच्चे माता -
पिता के होते हैं।यह जानती थी;पर समय कितना बदल गया है,यह नहीं जानती थी ।
नया मकान बनना शुरू हुआ तो वह हमेशा कहती," दादी आप पुराने मकान में
रहेंगी,हम अपने नए मकान में चले जाएँगे,"मैं उसका बचपना समझ कर चुप रह
जाती ।मेरे प्यार और व्यवहार में कई अंतर नहीं आया ।अपनी दिनचर्या का होम
कर मैं बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करने में लगी रहती ।रुद्र अभी छोटा था
।बहुत कुछ नहीं समझता था,लेकिन रीवा के सामाजिक ज्ञान का दायरा बढ़ रहा था
।
मकान तैयार हो गया,सामान पहुँच गया। जाने का समय भी हो गया ।वह मुझसे बिना
मिले कार मे बैठ कर चली गई ।उसने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा ।मेरा बरसों का
भ्रम टूट गया ।
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