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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन रत्नाकर
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दूरियाँ
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उन
दोनों के मकान साथ साथ थे ।बीच में एक छोटी- सी दीवार थी ।दोनों अच्छे
पड़ोसी थे ।अपने अपने आँगन में बैठ कर वे दोनों एक दूसरे से बतियाते थे,
सुख- दुख बाँटते । सर्दियों की गुनगुनी धूप का आनंद लेते ।गर्मियाँ
में रात तारों की छाँव के नीचे सोते थे ।वर्षा की बौछारों को छूते वे
दोनों सहज और सुखद जीवन जी रहे थे ;लेकिन जब एक पड़ोसी ने अपने मकान की
दूसरी मंज़िल बना ली, तब दूसरे पड़ोसी के आँगन में उगते सूर्य की किरणों
का आना बंद हो गया ।दूसरे पड़ोसी ने भी अपना मकान दुमंज़िला कर लिया
पर उनका बतियाना जारी था ।
दूसरी मंज़िल बनी,तीसरी बनी और चौथी भी बन गई ।जैसे
जैसे मंज़िले बनती गईं, वैसे वैसे आँगन छोटे होते होते ख़त्म हो गए ।
अब दोनों पड़ोसी बाहर नहीं दिखते ।चौथी मंज़िल की छतें
उनका आँगन है ।ऊपर जाकर बतियाना कठिन है ।इसलिए उनकी बातें कम होने लगीं
।अपने अपने कमरों में जीना सीमित हो गया । कभी कभार सुख - दुख की सूचना दे
देते हैं ।
मंज़िलों के बढ़ने के साथ दूरियाँ बढ़ गईं हैं ।अब कोई किसी को किसी प्रकार की सूचना नहीं देता ।
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