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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन रत्नाकर





ख़ुशबू



    टिकट लेने के लिए जैसे ही मैंने अपने हैंडबैग में हाथ डाला ,मेरा पैसों वाला पर्स उसमें से ग़ायब था ।सारा बैग अच्छी तरह से देख लिया; लेकिन वहाँ था ही नहीं तो मिलता कहाँ से ।घर से चलते हुए इसमें रखा ही नहीं था या फिर बस में चढ़ते समय किसीने निकाल लिया होगा ।मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।एक तो सीट पर गाँव का कोई आदमी बैठा था, उसके मोटे कपड़ों से पसीने की गंध मेरे नथुनों में घुसकर सिर को चकरा रही थी, उस पर यह मुसीबत । स्वयं पर कोफ़्त हो रही थी- लम्बा सफ़र और उस पर पैसे नहीं  ।सोचा बस रुकवाकर उतर जाना ही मुनासिब होगा ।एक बार फिर बैग में हाथ डाला । कुछ सिक्के खनकने लगे ।उसमें झाँक कर देखा काग़ज़ों के साथ एक- दो नोट भी नज़र आए ।थोड़ी- सी आशा बँधी । तभी देखा सहयात्री मेरी हर हरकत पर नज़र रख रहा है ।मैंने उसकी ओर क्रोध से देखा,तो वह अटपटा गया और खिड़की से बाहर देखने लगा ।
              मैंने बैग में से नोट और सिक्के निकाल कर देखे,उनतालिस ₹ थे ।संयोग था कि मेरी टिकट भी इतने की थी मैं इतमिनान से कंडक्डर का इंतज़ार करने लगी ।सोचा बस से उतर कर रिक्शा कर लूँगी और किराया घर जाकर दे दूँगी ।सुबह ही पता चला था कि माँ ठीक नहीं है ।जल्दी- जल्दी चलने के कारण सब कुछ गड़बड़ा गया था ।इधर यात्री के पसीने की गंध मुझे और परेशान कर रही थी एक हथेली में पैसे रख कर दूसरे हाथ से अपना रुमाल नाक पर रख लिया था कितने  ज़ाहिल हैं ये लोग। न अच्छी तरह नहाते- धोते  हैं,न कपड़े बदलते हैं ।सफ़र में दूसरे यात्री का ध्यान तो रख लेना चाहिए ।मैं मन ही मन कुनमुना रही रही थी ।कंडक्डर पीछे से टिकट देकर मेरी सीट तक आ पहुँचा था मैंने उनतालिस ₹ देकर टिकट माँगा ।
"कहाँ का टिकट चाहिए मैडम ।"
" उनतालिस ₹ तो पानीपत तक के लगते हैं ।वहीं का दीजिए न ।" मैंने तल्ख़ी से कहा
" मैडम सात ₹ और दें ।"
" सात ₹ और कैसे! उनतालिस ही तो लगते हैं ।पिछली बार इतने ही दिए थे ।"
" वह पिछली बार की बात है मैडम ।अब छियालिस लगेंगे ।किराया बढ़ गया है ।" कण्डक्टर ने कहा ।मेरी आवाज़ सुनकर सभी यात्री मेरी ओर देखने लगे ।
"पर मेरे पास तो इतने ही पैसे हैं ।" मैंने रुआँसी - सी होकर कहा
    " तो ऐसा कीजिए मैडम उनतालिस ₹ की टिकट दे देता हूँ ।वहाँ तक चली जाएँ, बाक़ी रास्ता पैदल चली जाएँ ।"

सभी यात्री हँसने लगे पर कोई सहायता के लिए आगे नहीं  आ रहा था ।मैं शर्मिंदगी से ज़मीन में धँसी जा रही थी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ।तभी मेरे साथ बैठे यात्री ने अपनी जेब से दस ₹ का नोट निकाल कर कण्डक्टर को देते हुए कहा,"ईब चुप भी हो जा ,ले बाक़ी के पीसे और मैडम को टिकट काट कर दे दे ।"
       मैं उसे मना करने ही जा रही थी कि उसने हाथ के इशारे से रोकते हुए कहा," कोनो बात नहीं बैन जी मानस ही तो एक दूसरे के काम आवे है ।"
        कण्डक्टर ने टिकिट और तीन ₹ मेरे हाथ में थमा दिए ।मैं कृतज्ञता से सहयात्री  को देख रही थी । मुझे अब उसके कपड़ों से पसीने की बदबू नहीं  ख़ुशबू रही थी ।
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