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लघुकथाएँ - संचयन -     माधव नागदा





  मेरी बारी  


 
  जब आमंत्रित वक्ता वैश्वीकरण तथा खुली अर्थव्यवस्था के फायदे गिना चुके और छात्रगण इस बात पर पुलकित होते हुए कक्षाओं में रवाना हो गये कि हमारे पास एक अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है तभी एक लड़का सहमता-सकुचाता विस्मयबोधक चिह्न की भाँति विद्यालय के मुख्य द्वार में प्रविष्ट हुआ। उसे इस तरह दबे पाँव विद्यार्थियों की भीड़ में शामिल होने की कोशिश करते देख कुन्दनजी ने धर दबोचा।
  “अच्छा,अच्छा! लेट, वो भी विदाऊट युनिफॉर्म और ऊपर से चोरी-चोरी। चल इधर आ।”
  दो-चार पड़नी तो थी ही।
  “ऐसा काबर-तीतरा शर्ट क्यों पहनकर आया?”
  लड़का चुप। इस चुप्पी को ‘तड़ाक्’ की आवाज ने तोड़ा।
  “जा वापस। स्कूल का शर्ट पहनकर आ।”
  “कल पहनूँगा सर। आज नहीं पहन सकता।”
  ‘सामने बोलता है। क्यों नहीं पहन सकता बता?’ कहकर कुन्दनजी ने एक बार फिर लड़के का खैरमकदम फरमाया।
  “आज मेरा भाई पहनकर गया है। पास की मिडल स्कूल में पढ़ता है।”
  “तो क्या तुम दोनों के बीच एक ही...।” कुन्दनजी के गले में मानो कोई फाँस अटक गई।
  “जी,सर। हम दोनों भाई बारी-बारी से मार खाते हैं। आज मेरी बारी है।” लड़के के चेहरे पर बीजगणित का कोई मुश्किल सा सवाल चस्पाँ हो गया। वह नजरें झुकाकर धरती पर पैर के अँगूठे से लकीरें माँडने लगा।

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