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लघुकथाएँ - संचयन -     माधव नागदा





  उत्तराधिकारी 


 
  बूढ़े ने खाँसा, खँखारा, करवट बदली। उसकी आँखों के कोये खोये-खोये से कुछ ढूँढ़ रहे थे। कान यूँ चौकन्ने थे ,जैसे किसी की पदचाप सुनने को बेताब हों । हाथ निढाल।
  “बापू...।” बेटा किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा।
  “”बैवाण आने वाला है। मुझे यमदूत की आहट साफ सुनाई दे रही है।” बूढ़ा घुटी-घुटी -सी आवाज में बोला।
  “ऐसा मत कहो बापू । पूरे सौ बरस जीओगे।”
  “संसार तो आदमी का पीहर है रे। अब ससुराल से बुलावा आया है । पिया खुद डोली भेज रहा है, जाना तो पड़ेगा ही।”
  बेटे को बापू की बात एक पहेली -सी लगी।
  “सुन ध्यान से।” बापू ने दो-तीन लंबी साँसें ली। खुद को बटोरा, फिर धीमे-धीमे कहने लगा, “इस घर के चार कोनों में चार मटके गड़े हैं। दो मटके मेरे बाप के, दो मेरी कमाई के । जब तू हर तरफ से हार जाए, पुरुषार्थ दगा दे दे तो खोदकर निकाल लेना।”
  “मुझे कुछ नहीं चाहिए बापू, बस तुम सलामत रहो।”
  लेकिन बापू कहाँ था। एक हिचकी आई और पंखेरू बिना बैवाण के ही फुर्र से उड़ गया।
  बेटे की जिंदगी में कई अवसर ऐसे आए जब लगा कि चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा है, लगा कि अब जमीन खोदकर उजालों से भरा एक मटका तो निकाल ही ले। लेकिन हर बार अंतस् उसे धिक्कारता, ‘क्या तू हार बैठा है? क्या तेरा पुरुषार्थ चुक गया? क्या तेरे बाजुओं में दम नहीं रहा?” और वह मटके का ख्याल मुल्तवीकर दुगुने उत्साह से जिंदगी की जद्दोजहद में जुट जाता। धीरे-धीरे अंतिम घड़ियाँ आ पहुँची। चारों मटके ज्यों के त्यों । उसने भी बैवाण की आहट सुनी । अपने तीनों बेटों को बुलाया । मटकों वाला रहस्य बताया और अपने बापू की सीख भी सुनाई । और बस... सब खत्म।

  तीनों बेटों की आँखों ने एक-दूसरे की भाषा को पढ़ा । फिर त्वरित गति से उठे । एक-एक कोना पकड़ा और लगे खोदने। उनकी आँखें फैली तो फैली ही रह गईं । चाँदी के ढेर सारे सिक्के । सोने के गहने ही गहने । वाह !
  पिता की लाश को भूलकर वे चौथे कोने की ओर झपटे।
  वहाँ पहले से ही उनकी संतानें काबिज थीं । वे घड़े को ओट में करते हुए बोलीं, “यह मटका हमारा है। इसके हाथ मत लगाना।”

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