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लघुकथाएँ - संचयन - पारस दासोत





बक़लम खुद
क्रांति के बाद- पारस दासोत


तेज हवा के कारण,…
महल के दरवाजे–खिड़कियाँ खड़ाक–खड़ाक की आवाज के साथ खुल गए।
हॉल में सजे फानूस,थरथराने लगे।
दीवार टँगी तस्वीर,संगमरमरी फर्श पर आ पड़ी और शीशा, चटककर चूर–चूर हो गया।
दीवार पर एक अकेली कील दिखाई दे रही थी।
कुछ महीने ही बीते होंगे ।
हवा का एक झोंका, हॉल में किसी तरह फिर आ ुसा। उसे हॉल में एक पूर्व परिचित कील दिखलाई दी।
कील पर पहले से बड़ी तस्वीर टँगी थी।

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युगों–युगों से चली आ रही सत्ता की प्रकृति :विशाल कैनवास

मेरी लघुकथा की लम्बी सृजन–यात्रा में (वर्ष 1978–2013 तक) मैंने पाया कि कथा में मेरे पात्र, जब भी उपस्थित हुए, वे अपनी मरजी से हाजिर हुए हैं या कि एक पात्र ने ही, अपने साथी पात्र को पुकारा है/गढ़ा है। उन्होंने मेरे प्रयास से भाषा–विज्ञान या व्याकरण की दृष्टि से अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई है। मेरी लघुकथा ‘क्रांति के बाद’ के जन्म की भी यही कहानी है। यहाँ लघुकथा पात्र, मानवेतर होने के साथ ऋतु (हवा) तथा जड़ पात्र हैं, जो कि प्रतीक रूप में अपना अभिनय निभाते हुए, लघुकथा को ‘प्रतीक लघुकथा’ साथ ही लघुकथा की बुनावट ‘चित्रात्मक शैली’ प्रदान करते हैं।

लघुकथा का केन्द्र बिन्दु–सत्ता की प्रकृति: सत्ता के सिंहासन पर विराजे सत्ताधारी के घृणित कार्यों के खिलाफ क्रांति महज एक प्रचवंचना बनकर रह जाती है। ‘गया राम’ के बाद ‘आया राम’ के कार्य भी जन आशा के विपरीत निकलते हैं। आम आदमी अपनी वर्तमान समस्याओं के समाधान हेतु जब सत्ता को असफल पाता है, वह परिवर्तन के लिए प्रत्यनशील हो जाता है और उसे एक आन्दोलन/एक क्रांति का रूप देकर सत्तासीन को हटने के लिए मजबूर कर देता हैं। इसके बाद दूसरा सत्तासीन होता है, किन्तु कालान्तर में, उसके लिए (आम आदमी के लिए) ये दोनों प्रवंचना ही सिद्ध होते हैं, क्योंकि परिवर्तन के बाद सत्ताधारी से भी ज्यादा शोषक व्यक्ति के रूप में मिलता है। यह सत्य यहाँ उक्त अवधारणा को प्रतिबिंबित कर, बिम्ब रूप में उपस्थित हुआ है।

लघुकथा किसी एक घटना पर आधारित न होकर, दो दृश्यों। कोलाज–चित्र रूप में उपस्थित हुई है। वह युगों–युगों से चली आ रही सत्ता की प्रकृति को/एक विशाल कैनवास को, मिनिएचर पेंटिंग के रूप में, जिसे दृश्य के एक रंग,एक बिन्दु को उसके भावार्थ में बदलकर भिन्न–भिन्न कालों में घटित घटनाओं- जन क्रांतियों के सत्य को एक प्रतीकार्थ रूप में प्रस्तुत हुई है।

लघुकथा में ‘हवा’ जन चेतना से उपजे विरोध-जनक्रान्ति का,‘महल’–साम्राज्य का, ‘दरवाजे–खिड़कियाँ–सत्ता के आइरन करटेन का, ‘हॉल’–शक्ति प्रदर्शन स्थल का, ‘फानूस’–ऐश्वर्य का, ‘दीवार’–अन्यायों, अत्याचारों तथा अनाचारों के डर से रचे वैभव का, ‘तस्वीर’–सत्ताधारी के गुणगान करते असत्य गीत का, ‘संगमरमरी फर्श’–जीवन के मूल्यवान्, अर्थगर्भित यथार्थ का, ‘शीशा’–असत्य के छाया प्रदर्शन का, ‘कील’ प्रशासनिक केन्द्र-सिंहासन के प्रतीक बनकर कथानुरूप एक–दूसरे को पूर्णता प्रदान करने हेतु उपस्थित होकर, एक स्वत: पूर्ण रचना का निर्माण करते हैं।

प्रतीक, पात्रानुकूल बनकर उपस्थित होने के कारण लघुकथा में अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ते हैं, जैसे–‘फानूस’ का थरथराना, ‘शीशे’ का चटककर चूर–चूर होना। ये प्रतीक अपने चरित्रानुसार भाषा में ढल कर उतरे हैं। ‘शीशा’ छवि का खण्ड–खण्ड होकर नष्ट होना (शीशा चटककर चूर–चूर हो गया) ‘फानूस’–जब सत्ता पर जनशक्ति का प्रहार होता है, पूंजीपति वर्ग सबसे पहले प्रभावित होता है। डरता है। चूर–चूर होना,रथराना, प्रथम दृश्य में ‘दीवार पर अकेली कील का दिखना’ जनक्रांत्ति के सफल होने का सूचक है। ठीक इसके विपरीत दूसरे दृश्य में सिंहासन पर पहले से अधिक साम्राज्यवादी-सत्तावादी शासक का बनकर बैठा होना (वाक्य प्रतीक: कील पर पहले से बड़ी तस्वीर टंगी थी) सिंहासन की नियति का-सत्ताधारी के चरित्र का प्रतीक है । विश्वसनीय यथार्थ चित्रण, शब्द भाषा सौंदर्य,भाषायी चमत्कार के साथ–साथ कृति को सहज, सरल, गतिशील और निर्दोष–स्वच्छन्दता प्रदान करते हैं।



 
 
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