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लघुकथाएँ - संचयन - पारस दासोत





विचार-विमर्श


लघुकथाकार उर्मिल कुमार थपलियाल की लघुकथा : ‘समाजवाद’ (अभिनव इमरोज, अंक : दिसम्बर 2013,पृष्ठ:11) मेरी प्रिय लघुकथाओं में एक है, कारण–लघुकथा की अभी तक की यात्रा में, उसे ऐसे लघुकथाकार गिने -चुने ही मिले हैं, जिन्होंने लघुकथा को कुछ देने के लिए, अपनी कुछ लघुकथाएँ भीड़ से हटकर रचीं हैं, लघुकथा भीड़ में खड़ी यथार्थवादी, यथास्थितिवाद के खिलाफ, व्यंग्यात्मक लघुकथाओं के साथ न खड़ी होकर, उन गिनी चुनी लघुकथा के साथ उपस्थित है, जिन्होंने लघुकथा विधा को कुछ देने का प्रयास किया है।

लघुकथा अपने केन्द्र बिन्दु पर खड़े यथार्थ के रंग में रंगी अतियथार्थवादी चित्रण लिये हुए है। लघुकथा में राजनीतिज्ञों द्वारा अपने कार्यकर्त्ताओं/सामान्यजन का अपने हित में उपयोग एक केन्द्रीय यथार्थ है। यहाँ लघुकथा का प्रमुख पात्र, राजनीतिज्ञों का चाबी लगा उपकरण मात्र है। वह अथाह थकने की सीमा तक दिन भर उनके लिए धरने में, रैली में, प्रदर्शन में नारो (उनके) के साथ सम्मलित है। वह अपने विश्राम के क्षणों तक पहुँचते–पहुँचते पूर्ण थक चुका है। उसका शरीर टूट चुका है/खण्डित हो चुका है/विभाजित हो चुका है। वह तो अपने टूटे हुए शरीर को विश्राम देने के लिए अपने पर से उतारता मात्र है। वह खुद तो एक विचार शून्य पात्र है। जो थकता नहीं है। यही कारण है वह अपने विश्राम स्थल (कमरे में) में उपस्थित नहीं है। जो विश्राम चाहते थे वह उन्हें जल्द से जल्द विश्राम देना चाहता है। विचार शून्य पात्र होने के कारण उसके पास न तो तमीज है, न अनुशासन, न नियोजन है। वह अपनी टाँगें,,सिर, हाथ धड़ उतारते समय, अपना परिचय भर देता है। लघुकथा में यह वह बिन्दु है, जहाँ यथार्थ, अतियथार्थ के रंग में रंग जाता है। यह परिवर्तन स्वाभाविक सा होने के कारण सुन्दर है, पूर्ण है।

लघुकथा संतुलित है। यथार्थ और अतियथार्थ अपने संगम स्थल पर पूर्ण संतुलन के साथ मिलते हैं। यथार्थ लघुकथा में अपने दो छोटे–छोटे हिस्सों में अधिक घनत्व लिये हुए है और अतियथार्थ लघुकथा में बचे बड़े फलक पर फैला हुआ है। एक लोहा रूपी है, तो दूसरा ‘रुई’ रूपी है। लघुकथा में प्रमुख पात्र का विचार शून्य ‘मैं’ और उसके अन्दर के मर्द को ‘मैं’ लघुकथा में दोनों ही सुन्दर संतुलन की रचना करते हैं। पात्र द्वारा अपने अंगों को अत्यवस्थित ढंग से/उपेक्षित भाव से फेंकने/उतारने का चित्रण, उसके ‘मैं’ को दर्शाते हैं। अंश जहाँ जाकर गिरते हें, वे वहाँ किसी संकेत या प्रतीक की रचना नहीं करते। पर पात्र के अन्दर का ‘मैं’ उसका मर्द, कठोर परिस्थिति में भी अपना परिचय देता है। पात्र द्वारा अपने धड़ को बिस्तर पर फेंकना, हमें कुछ कह जाता है। धड़ क्यों बिस्तर के बीचों–बीच अरकता है। यह एक श्रेष्ठ संतुलन है। चित्रण कहीं भी अस्वाभाविक नहीं लगता। ‘समाजवाद आ गया है’ सूचना,झूठी सूचना पर उसकी हड़बड़ाहट, उसके चरित्रानुरूप है। वह फिर तैयार है। अपने विचार शून्य समर्पण के साथ। सिर को अपने धड़ पर उलटी दिशा में रखना, एक स्वाभाविक चित्रण है। संतुलित है।

लघुकथा एक भोले/विचार शून्य मानव/ यथास्थितिवादी पात्र की अतियथार्थवादी रचना है। यह वह बिन्दु है, जो मोह लेता है। प्रमुख पात्र सहज, सरल भोला व शुद्ध है। वह निर्वस्त्र है। दिगम्बर है, उसके पास विचार रूपी वस्त्रों का कोई आवरण नहीं है। शुद्ध है। वह प्रख्यात कथाकार रेणु के पात्र ‘हीरामन’(फिल्म तीसरी कसम) की याद दिलाता है। उसमें झुंझालहट, विरोध,आक्रोश नहीं है। वह तो बस नदी के पानी की तरह बह रहा है। अपने ही नहीं, दूसरों के सपने टूटने,दूसरों के अशोभनीय व्यवहार पर, अपनी बेवकूफी पर,रो देता है। (कहीं कुछ नहीं था।) वह उगा गया समाजवाद नहीं आया।

लघुकथा का स्तर (क्षमा करें! लघुकथा एक ऐसी कथा विधा है, जिसकी रचना का अन्त नहीं होता। लघुकथा लेखक के लिखे शब्दों से हटकर पाठक के मस्तिष्क में शब्दों की रचना करते लगती है, यही उसकी पूर्णता है। ) अतियथार्थवादी चित्रण होते हुए भी, वह यथार्थ में दृष्टिगोचर होने की क्षमता रखता है। वह एक नये प्रतीक की रचना करता है। दर्द की अथाह गहराई को छूता ही नहीं, जीता है। यह वह बिन्दु है, जो लघुकथा के भोले पात्र को पाठकों/दर्शकों के दिल के करीब ला खड़ा करता है। उनके आँसू सीने के आवरण पर गिरते हैं और भोले पात्र के आँसू उसकी पीठ पर, लघुकथा के शीर्षक को कम समय दिए जाने की कमी के होते हुए भी, यह मेरी प्रिय लघुकथा है!

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समाजवाद

लघुकथाकार : उर्मिल कुमार थपलियाल

दिन भर धरना, रैली, प्रदर्शन और नारेबाजी के बाद वह जब रात को घर लौटा तो बेहद थक गया था। जैसे वो एक दर्द हो, जो निकास नहीं पा रहा हो। घर जाकर उसने बड़ी दिक्कत से अपनी दोनों टाँगें फेंक दीं। एक टाँग मेज के पास और दूसरी बाथरूम के दरवाजे के पास जाकर गिरी। अपने दर्दीले कंधे उचकाकर उसने दोनों हाथों से अपना भारी सर अलग किया। वो तकिए और बिस्तर के नीचे लुढ़क गया। अपने दोनों हाथ उसने झटके से अलग किए। वे पलंग के इधर–उधर जा गिरे। उसका धड़ बिस्तर के बीचों–बीच जाकर अटक गया। अब वह कमरे में कहीं नहीं था। उसकी एक विभाजित सी उपस्थिति थी। आँखों की पलकें बंद थीं। जैसे किसी ने उन्हें सी दिया हो। वह लगभग अभंग था।

सवेरा होते ही उसके दरवाजे की सॉकल खटकी। खटकने की आवाज सुनने से पहले एक तरफ पड़े चेहरे की पलकें खुलीं। दरवाजे पर कोई बड़ी हड़बड़ी में चिल्ला रहा था ‘‘उठो, जल्दी उठो, समाजवाद आ गया है।’’ वो अस्वव्यस्त था। दरवाजे की सॉकल फिर बजी और चिल्लाने वाला अगले मकान की तरफ बढ़ गया। पाँव पहने। कंधे पर सर टिकाया और सड़क की तरफ दौड़ पड़ा। कहीं कुछ नहीं था। चिल्लाने वाला किसी दूसरे मकान की सॉकल बजा रहा था। पागलों की तरह। मुड़–मुड़कर कुछ उसे देख रहे है, कुछ हैरत में है। कुछ चकित, कुछ देर के बाद लोगों के हँसने की आवाज उसे सुनाई देने लगी। उसे रोना आने लगा।

उसे लगा कुछ गड़बड़ जरूर है, क्योंकि जब वो रोने लगा तो उसके आँसू उसकी पीठ पर बह रहे थे।

चित्रकार

मूर्त्तिकार

लेखनरत

फ़ुर्सत के पल



 
 
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