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लघुकथाएँ - संचयन - पारस दासोत





भूख


बेटे को पकड़ते हुए वह चिल्लाई, ‘‘नाश पिटे! मैंने तुझसे कितनी बार कहा, ‘‘दौड़ा मत कर, कूदा मत कर....तू समझता क्यों नहीं!’’
यह सब देख–सुन पड़ोसन बोली, ‘‘अरी बहन,...बच्चा है। दौड़ने–कूदने दो!....तुम्हें मालूम नहीं! दौड़ने–कूदने से भूख अच्छी लगती है। स्वास्थ्य अच्छा रहता है।’’
अब....वह उत्तर में कुछ न बोली। वह तो बेटे को इस तरह पीटने लगी, मानो समझा रही हो, ‘दौड़ने–कूदने से भूख अच्छी नहीं, अधिक लगती है।’


 
 
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