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लघुकथाएँ - संचयन - पारस दासोत





एक राजा का दर्द


अपने प्रिय मित्र सुदामा का पत्र पढ़कर श्रीकृष्ण, तुरन्त पत्रोत्तर लिखने बैठ गए। श्रीकृष्ण ने लिखा–
‘‘सुदामा, मेरे भ्राता, मेरे सखा, मुझको अपने गाँव मत बुलाओ। मैं, अब वह गोपाल नहीं रहा, जो तुम्हारे साथ गिल्ली–डंडा खेलता था, मैं राजा हूँ......सखा, परिस्थितियाँ भी बदल गईं हैं। चारों–ओर आतंकवाद फैल गया है, मुझे अपने गाँव मत बुलाओ!
मेरे प्रिय भ्राता, अभी–अभी मैं, अपने ननिहाल की यात्रा करके लौटा हूँ। सुदामा, मेरे प्रिय सखा, मैंने पहली बार देखा, अपने स्वागत को बहुत समीप से देखा, अपनों की प्रीति देखी, उनके द्वारा किया....सम्मान देखा। सखा जानते हो, इसका क्या कारण रहा होगा!.....मैं, राजा नहीं, रंक बनकर गया था, वहाँ! ‘मैं एक साधारण नागरिक बनकर पहुँचा था, अपने ननिहाल’....
कदाचित, सुदामा, कदाचित.....इस कारण, मैंने पहली बार जाना–‘राजा की यात्रा में हमारे राज्य की, सखा....हमारे–तुम्हारे गाँव की हजारों स्वर्ण–मुद्राएँ व्यर्थ ही खर्च हो जाती हैं।‘....कितना अच्छा होता,....मैं वे स्वर्ण–मुद्राएँ अपने प्रिय ननिहाल को और दे पाता!...
सुदामा, मेरे भ्राता! मेरे सखा, हट मत करो! मुझे मत बुलाओ अपने गाँव! सच मानो!.....सुदामा सच मानो! मैं तुम्हें, तुम्हारे–हमारे–अपने गाँव को वो सब कुछ दूँगा, जो तुम चाहोगे, मेरा प्रजाजन चाहेगा।’’
इससे पहले,....श्रीकृष्ण, अपना पत्र पूरा करते,......द्वारपाल ने सूचना दी– ‘‘एक दरिद्र–सा मानव, जो अपना नाम ‘सुदामा’ बतला रहा है, महाराज से मिलना चाहता है।’’
‘‘क्या!.....क्या !....सुदामा!.....लगता है, मेरे मित्र ने मेरी पुकार सुन ली!’’


 
 
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