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लघुकथाएँ - संचयन - पारस दासोत





पति का घर


पागलखाने में,…
वह न अपने से मिलने आए देवर से गिड़गिड़ाती हुई बोली-
“मुझे घर ले चलो ! मैं तुम्हारा कहना मानूँगी ! मैं तुम्हारे साथ…”
“ देवी जी, अब क्या हो गया!” देवर ने कुटिल मुस्कान ली ।
वह कुछ न बोली ।
थोड़ी देर बाद !
वह अपने घर जाते समय वार्डन की ओर इस तरह देख रही थी, मानो कह रही हो-“औरत को तो पागलखाने में भी क्या अन्तर पड़ता है, कम से कम वह अपने पति का घर तो होगा!”


 
 
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