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लघुकथाएँ - संचयन - आनन्द





उतरन


बेशकीमती जेवर पहने,सुन्दर परिधान में सजी–सँवरी और गरिमामय ढंग से चलते हुए, वह अपना महलनुमा घर मुझे दिखा रही थी। उसके पीछे चलती चकित और संकुचित -सी मैं देख रही थी। एक दर्जन के करीब वे सभी कमरे वातानुकूलित थे। आधुनिक सुख -सुविधाओं और सम्पन्नता की प्रतीक सभी चीजें सभी कमरों में थीं। मकान में एक तरफ स्वमिंग पूल था, खेलने का मैदान था। पाँच कीमती गाड़ियाँ मैंने देखीं। नौकर–चाकर और माली अपने–आपने काम में व्यस्त थे। चौकीदार व अंगरक्षक चौकस निगाहों से इधर–उधर देख रहे थे।

वह मुझे अपने जेवर दिखाने लगी। जेवरों की सुन्दरता देख और इतनी अधिक कीमतें सुन मैं दंग रह गई। अचानक उसे कुछ याद आया, ‘‘अरे हाँ! वह दिखाना तो मैं भूल ही गई।’’वह हाथ में चुनरी लहँगा और चोली लिये हुए थी।
तुमने फिल्म “घूँघट’’का वह डांस तो देखा तो देखा ही होगा जो हीरोइन ने घूँघट के अन्दर क्या है? वाला गीत गाते हुए किया था क्या मदमस्त करने वाला डांस था। लोगों ने इसी एक डांस को देखने के लिए फिल्म को कई–कई बार देखा था।

मैंने हालाँकि फिल्म नहीं देखी थी, फिर भी अपनी इज्जत बचाने के लिए झूठ बोला, ‘‘हाँ–हाँ वह फिल्म मैंने देखी थी।’’

‘‘यही है। वे चुनरी, लहँगा और चोली, जिन्हें पहनकर हीरोइन ने वह डांस किया था। बहुत मुश्किल से इन्हें ले पाई थी मैं, क्योंकि इन्हें लेने की चाहत बहुत से धनवान घरों की औरतों में थी। लेकिन मैं तो घर से निश्चय करके गई थी कि चाहे कितने भी पैसे देने पड़े, लेकिन इन्हें लूँगी मैं ही। सबको पछाड़ते हुए सबसे ऊँची बोली देकर आखिर मैंने ही इन्हें लिया। सबको तो मैं यह दिखाती भी नहीं लेकिन तू तो मेरी बचपन की सहेली है ना, इसलिए दिखा रही हूँ’’

बचपन तो हम दोनों का साथ–साथ और अभावों में गुजरा था लेकिन अब....? अब वह कहाँ, मैं कहाँ! वह अर्श पर, मैं फर्श पर, वह धन से खेल रही थी मैं अभावों से जूझ रही थी। अब हमारे बीच कोई समानता नहीं थी, बल्कि बेहद सम्पन्नता और घोर विपन्नता के बीच पैदा होने वाली तमाम असमानताएँ थीं। लेकिन तमाम असमानताओं के बावजूद यह अद्भुत समानता थी कि उतरनें वह भी पहनती थी, हम भी। मगर कैसी समानता? हम छुपते–छुपते और यह देखते हुए कि कोई देख न ले, रेहड़ी मार्केट से सस्ती–सस्ती उतरनें खरीदते और हमेशा आशंकित रहते कि कोई जान न ले कि हम उतरन पहने हैं। जबकि किसी की उतरन वह मुझे गर्व से दिखा रही थी।


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