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लघुकथाएँ - संचयन - आनन्द





छलकता हुआ भिक्षापात्र


वह कस्बे का मेला था। एक भिखारी हर किसी के सामने हाथ फैला रहा था, ‘‘बाबूजी, चवन्नी,अठन्नी....।’’एक किशोर अपने छोटे भाई के साथ भिखारी के सामने से गुजरा। भिखारी ने आदत वश हाथ फैलाया,लेकिन नंगे पैरों तथा नाम मात्र को कपड़ा पहने दोनों धूल भरे बालक खुद भिखारी–से लग रहे थे। उसने हाथ वापस कर लिया।

कुछ देर बाद उसे दोनों बालक एक खिलौने वाले के सामने दिखाई दिए। छोटे ने एक खिलौने की ओर संकेत किया, ‘‘भैया, वह ले लो।’’बड़े ने कीमत पूछी,जेब के सिक्कों को टटोला और विवशता से कदम आगे बढ़ा लिए, ‘‘यह अच्छा खिलौना नहीं है मुन्ने। जल्दी टूट जाएगा। हम कोई मजबूत खिलौना लेंगे।’’

भिखारी ने वात्सल्य भरी दृष्टि से उन्हें देखा। उसके मन में अपने का काल्पनिक बच्चों की जो रूपाकृति अकसर प्रकट होती थी, वह मानो सजीव रूप में उसके सामने थी, ‘‘बिल्कुल ऐसे ही होते।’’वह ख्वाबों में खो गया, ‘अगर शादी हुई होती तो इतनी ही उम्र के.....भोलेभाले....गोल–मटोल....धूलभरे...ऐसे ही....लेकिन ऐसा नसीब कहाँ।’’उसने आह भरी।

दोपहर हो चली थी। गरमी से राहत पाने और कुछ देर आराम करने के लिए वह एक वृक्ष के नीचे जा बैठा। उसे वे ही बच्चे फिर दिखाई दिए। गरमी से चेहरे कुम्हला गए थे। शरीर से पसीना चू रहा था। अब छोटा भाई खिलौने की जिद नहीं कर रहा था, ‘‘भैया, भूख लगी है।’’बड़ा उसे समझा रहा था, ‘अगर हमने खाने पर पैसे खर्च कर दिए तो खिलौना कैसे खरीदेगें? चल, तुझे पानी पिला देता हूँ। भूख नहीं रहेगी।’’
गरमी से राहत पाने के लिए वे भी चलते–चलते वृक्ष के नीचे खड़े हो गए। छोटा इस बार भूख के मारे रो पड़ा था, ‘‘भैया, बहुत जोरों से भूख लगी है।’’

भिखारी ने दोनों को अपने पास बुलाया। स्नेह से छोटे को चूमा और जेब से मुट्ठी भर सिक्के निकालकर उसकी हथेली पर रख दिए।



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