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लघुकथाएँ - संचयन - आनन्द





अशुभ–अशुभ


अनेक उद्योग–समूहों के मालिक बेहद व्यस्त और अपने महानगर के प्रमुख धनकुबेरों में से एक थे। वे अपनी व्यस्तताओं के चलते, हालाँकि अपने परिवार को भी बहुत कम वक्त दे पाते थे वे, लेकिन आज जरा फुर्सत में थे और पत्नी और तीनों बच्चों के साथ थे। आत्मीयतापूर्ण हास–परिहास के बीच अचानक उन्होंने बड़े बेटे की ओर इशारा किया और पत्नी से पूछा, ‘‘क्यों जी, अपना ये बड़े वाला राजकुमार कब हुआ था?’’

‘‘अब साल तो याद नहीं, हाँ मगर, इतना याद है कि हुआ ये तभी था, जब आप टैक्स चोरी के मुकदमों में फँसे थे और लगता था कि सजा होगी–ही–होगी। लेकिन ज्यों–ज्यों इसके जन्म का समय नजदीक आता गया, हालात तेजी से अनुकूल होते गए और जितनी रिश्वत देने को हम तैयार थे, आखिर उससे भी कम पैसे में मामला निपट गया। सुबह इसका जन्म हुआ, दोपहर को न्यायालय ने आपको बरी कर दिया।’’
‘‘वेरी गुड! और अपनी ये राजकुमारी? ये कब हुई थी?’’

पत्नी ने बेटी को प्यार से चूमा, ‘‘ये …? ये विधान सभा के चुनाव वाले साल हुई थी। क्या आपको इतना भी याद नहीं कि अभी जब ये दो ही दिन की थी कि अपनी कालोनी में चुनाव सभा को सम्बोधित करने आए मुख्यमन्त्री चाय पीने अपने घर आए थे। और ये भी उसी दिन शाम को हुआ कि आपने चुपके–चुपके शहर के एक प्रमुख अंडर वर्ल्ड सरगना को
अपना पगड़ी बदल भाई बना लिया था।’’

‘‘और अपना ये छोटे वाला राजकुमार?क्या इसके जन्म के समय भी ऐसा कुछ हुआ था?’’उसने पूछा।

‘‘हाँ, क्यों नहीं।’’पत्नी ने गर्व से कहा, ‘‘यही तो है हमारा वह सौभाग्यशाली बच्चा जो अपनी बन्द मुट्ठियों में सौन्दर्य प्रसाधन बनाने वाली अपनी उस कम्पनी का उपहार लिये था, जिसका नाम आज हर युवती की जुबान पर है। अभी ये मुश्किल से एक सप्ताह का रहा होगा
कि अपनी कम्पनी ने पहले दस उत्पाद बाजार में उतारे थे और कुछ ही सालों में देश की नम्बर एक कम्पनी बन गई थी।’’

‘‘कितने सौभाग्यशाली हैं हम, जो ईश्वर ने हमें ऐसे भाग्यवान बच्चे दिये हैं।’’उसका चेहरा गर्व और आत्मसंतोष से चमक रहा था।
‘‘मुझे बराबर लगता है कि आज हमारे पास जो कुछ है, सब बच्चों के भाग्य से है, वरना आप तो मुश्किल से दाल–रोटी का खर्च निकाल पाते थे।’’पत्नी ने कहा।

नौकर के भी तीन बच्चे थे। घर आकर पत्नी से उसने उत्साह से पूछा,‘‘क्यों री, अपना बड़ा बेटा किस साल हुआ?’’

‘‘ये कलमुँहा भयंकर बरसात वाले उसी साल तो हुआ था जब बाढ़ में छप्पर बह गया था। हे भगवान! कैसी–कैसी मुसीबतें लेकर आया था यह अभागा, सोचती हूँ तो कलेजा काँपता है। कितने दिन इसे उठाये –उठाये इसे ऊँचे टीले से उस ऊँचे टीले पर, भूखे–प्यासे, हारे–थके आश्रय खोजते फिरे। बाद में जब जमींदार की खंडहरनुमा पुरानी हवेली में आश्रय लिये

हुए थे एक दिन मुझे अकेली पाकर उसके बिगड़ैल बेटे ने मेरे साथ दुष्कर्म किया।’’बोलते–बोलते वह अतीत की दुखद यादों में खो गई और फूट–फूट कर रोने लगी।

नौकर उदास और खामोश था। उसने अपने बाकी दो बच्चों के बारे में नहीं पूछा।



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