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असमंजस में डूबा बैठा हूं अभी तक। मिल लूं.......? या यूं ही डुबकी मारे रहूँ? बेताल की तरह वह हर पल
हर क्षप जैसे हो कंधे पर सवार।
।उसे छोड़ा भी या झुठलाया भी नहीं जा सकता। एक परम सत्य है वह। सत्ता का प्रतीक। दोनों ही सहारेदार बने घूम रहे हैं मजे में। मेरी नजर से परखिए तो दो सहोदरों की चटनी की तरह, गड्डमड्ड। जैसे चटनी किसी को खी लगे किसी को तीखी। दो बेमेल स्वादों का गठबंधन। राजनीति की तरह नहीं। अणु से अणु मिले हुए, परमाणु से परमाणु सटे हुए।
स्वीकार करता हूं कि जब तक वह परम सत्य का प्रतीक बना रहा, उजले कलफ लगे कपड़ों में सफेद चमाचम कार से उतरते हुए, सफेद कॉफ–लेदर की सेंडिलों में सजे अपने पैर जब–जब भी जमीन पर रखता रहा, मैं अपनी श्रद्धा को अक्षत–फूलों में बदलकर उन चरणों को तब–तब वन्दनीय बनाता रहा।
फिर मुझे पता चला क निकला आखिरकार वह भी झूठों,मक्कारियों का पुलिंदा ही। कई तरह के आर्थिक अपराधों में संलग्न पाया गया उसे।
जेल में वह शुरू–शुरू में मेरी प्रतीक्षा करता रहा। सभी गए थे मुझ जैसे। उसकी परेशानी पर न शिकन न जुबान में झिझक। जैसा कि मैंने सुना बयान देने की आदत भी पूर्ववत् बरकरार रही उसकी। उसका छपा वक्तव्य मैंने कहीं पढ़ा कि न तो उसने किया किसी का खून,न ही गला काटा किसी का।.....न ही वह बलात्कारी, व्याभिचारी न व्यसनी ही। यह नया–नया कांड उजागर हुआ है दोस्तों....। इसकी परिभाषा अभी तय की जानी बाकी है। जिन्हें भयानक अपराध, देशद्रोह समझ रहे हैं कुछ पोंगापंथी, सनातनवादी....हो सकता है परम सत्ता के प्रतीक का सबसे जायज, सबसे हलाल किस्म का हक ठहरा दिया जाए इसे कालान्तर में। इस संबंध में एक राजनीतिक संत की चन्द महत्त्वपूर्ण घोषणाणाएँ द्रष्टव्य।
तो इसीलिए डूबा हूँ असमंजस में। आकंठ। अब तो न्यायमूर्ति ने जमानत भी दे दी है उसे। सत्य का प्रतीक कारागार में कब तक टिक सकता है। पटाखे छूटे। आतिशबाजियां हुई। ढोल–मृदंग पर थापें पड़ीं। मंगल–वाध बज उठे। सभी के सभी दौड़ पड़े....फिर....फिर....। इतिहास हमेशा से नकारने की चीज रही है, वह भी अवसरवादियों के लिए। उत्तर आधुनिक समय का यही तकाजा भी है।
‘‘तमाम पुराने लोग अपनी नित्य उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं वहां;’’–सूचना देने को रोकना चाहा, पर वह रुका नहीं। ‘‘एक दिन तुम्हारे स्वास्थ्य के विषय में भी जिज्ञासा की थी उन्होंने......भरे दरबार में;’’–भागते–भागते भी प्रहार कर ही गया वह बदजात।
आखिरकार एक दिन बीच राजमार्ग पर हो गया आमना–सामना। क्या भाग जाऊँ पलटकर.....या मुँह घुमा कर दिशा बदल लूँ अपनी? हे धरती माँ.....तू फट भी क्यों नहीं जाती। जानकी की सुनी–सुनाई वेदना मेरी नस–पस को तड़काती–सी।
सत्य का साहसपूर्वक सामना करना ही जीवन है। स्थितप्रज्ञा होकर दृढ़तापूर्वक सामने टिका दी अपनी भावशून्य आँखें। मगर सामने वाली की आँखों में अपरिचय तो जैसे ठाठें मारता हुआ। चेहरे पर वैसी ही विदू्रपता पसरी हुई, जैसी कि किसी छोटे–मोटे गड्ढे को देख समंदर से आशा की जानी चाहिए।
जैसे राह में बिछी किसी पतली, गंदी नाली को देख घोड़े की चाल में रंच भर भी फर्क नहीं आता, लगभग वैसे ही, बिना बिदके हुए फलांगकर चला गया वह मुझे.....यूं ही असंमंजस में डूबा छोड़कर....।
क्या राय बनती है पंचों की। सर नवा दूं जाकर....या यूं ही डुबकी मारे रहूं.....?

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