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लघुकथाएँ - संचयन - सतीश दुबे
राजा भी लाचार है
उसे पता लगा कि नया राजा हर शख्स को आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराने की घोषणा पर अमल कर रहा है। ताज्जुब है, इसके बावजूद दरबारी होकर भी वह हर चीज के लिए तरसा करता है। उसे विश्वास हो गया कि उसे तरसाने के पीछे बिचौलियों की साजिश काम कर रही है।
वह स्वयं राजा के पास पहुँच गया तथा गुहार लगाई, ‘‘राजा! राजा! आम दो!’’
राजा ने एक बार उसकी तरफ हवाई नजर फेंकी तथा जवाब दिया, ‘‘आम! आम तो सरकार के हैं....’’
जवाब सुनकर उसे एकदम झटका लगा। जाँचने के लिए राजा की आँखों में झाँककर धीरे से अर्ज किया, ‘‘पर हुजूर, हम भी तो दरबार के हैं।’’
‘‘तो क्या हुआ! सरकार की काली कुत्ती तो सबको काटती है, तुमको भी काटेगी।’’
पलक झपकते ही उसकी समझ में सब माज़रा आ गया। आँखें घुमाकर धीरे से फुसफुसाया, ‘‘घी की रोटी डालकर उसको वश में कर लेंगे हुजूर...’’
‘‘ और यदि घोड़ी ने लत्ती मारी तो?’’
‘‘तो उसको भी चंदी–चारा डाल देंगे।’’
‘‘फिर तो आपको आम मिलेंगे।’’
राजा के इशारे पर एक गुलाम तश्तरी में आम लेकर हाजिर हो गया।
राजा ने दरबारी को आदेश दिया, ‘‘एक आम उठा लो।’’
उसने उठाकर रस चूसा।
‘‘हुजूर, यह तो खट्टा है।’’
‘‘दूसरा उठाओ।’’
‘‘हाँ,यह मीठा है।’’
उसके बाद उसने जो आम उठाया, वह फिर खट्टा लगा।
उसने राजा की ओर जिज्ञासा–भरी नजर से देखा। राजा ने उसकी भाषा को समझकर ठहाका लगाया, ‘‘मूर्ख! दरबारी होकर भी इतना नहीं समझता कि राजा और सरकार के कुत्तों को घी की रोटी और घोड़ों को चंदी–चारा डालने पर भी सब आम मीठे नहीं मिलते। समझे? जाओ भागो यहाँ से!’’
एक बार गौर से उसने राजा का चेहरा देखा और उसे लगा–अरे! यह तो वही बरसों पुराना राजा का लाचार चेहरा है।
चेहरा समझ में आते ही वह दुलकी लगाकर वहाँ से भागा।


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