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लघुकथाएँ - देश - सतीश राठी
साइकिल

‘‘सर! मेरा सायकल का लोन आज स्वीकृत हो जाता तो मेहरबानी हो जाती।’’
–कमर से पूरा झुककर और बाणी में सारी विनम्रता समेटकर रघु चपरासी ने सक्सेना साब से कहा।
‘‘अरे तेरी सायकल से पहले तो मेरी सायकल ऋण स्वीकृत करवाना है।’’
–मसखरी के स्वर में सक्सेना ने कहा।
‘‘साब। आप तो कार में आते जाते है आपको सायकल की क्या जरूरत। सायकल तो हम जैसे गरीबों के लिए है।’’–रोज पाँच किलो मीटर पैदल चलकर आने का दर्द रघु के बोलने के पीछे दबा हुआ था।
‘‘अरे। तेरी सायकल नहीं पागल। मुझे तो व्यायाम वाली सायकल खरीदना है। देखता नहीं यह’’––अपनी मोटी तोंद की ओर उन्होंने इशारा किया।
‘‘हमारा पेट तो परिवार का पेट पालने की चिन्ता में ही अन्दर हो जाता है साब।’’
मुँहलगे रघु का चिन्ता भरा स्वर सुन सक्सेना जी खिसियाहट से भर गए।

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