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लघुकथाएँ - संचयन - सत्यनारायण
रोटी
उसका सिर गोलमटोल था। पतली–दुबली कायां हवा के संगे उड़ते बिखरे बाल। आँखें जाने क्या–कुछ खोजतीं–सी।
चौदह–पन्द्रह की उमर रही होगी। मूँछों के भूरे रोएँ काले होने लगे थे।
वह लगातार चुप रहता था। उसकी चुप्पी देखकर कई बार घरवाले डर जाते।
एक दिन वह गाँव से भागकर शहर आ गया।
न थाने में रपट लिखाई गई, न गुमशुदगी के परचे छपे, दो–तीन दिन बाट देखकर घरवाले जैसे थे, फिर वैसे ही हो गए। माँ जरूर छुपकर याद करके रो लेती थी।
वह दिन–भर काम की तलाश में भटकता। पर काम कहीं भी नहीं था। रात होने से पहले पस्त हो जाता और कहीं भी गोड़ों में माथा देकर पड़ जाता–अगले दिन तक।
दिन फिर उगता। सपनों के साथ। उसे रोज भाँत– भाँत की रोटियों के सपने आते। आँख खुलते ही वह उनके पीछे दौड़ पड़ता। दौड़ता–हाँफता फिर कहीं भी गिर जाता।
रोटी के पीछे लपकते–लपकते वह बूढ़ा हो गया। पर सपने अब भी वैसे ही आते–रोटियों और रोटियों के।
और एक दिन वह मर गया। अपनी मृत्यु से ठीक पहले उसने बताया कि कुछ दिनों से उसे रोटी के सपने आने बंद हो गए थे। और यही उसकी मौत का कारण बना।
सपने
वह अकेला था।
वह रोज सपने देखता था।
वह अक्सर भीड़ में गुम जाता। उसमें भटकता।
वह सपनों से इतना तंग आ गया था कि रात–रातभर जागता रहता, ताकि सपने न आएँ।
लोग उसका मजाक उड़ाते थे।
वह लोगों की परवाह नहीं करता था।
वह अकेला रहता था।
जब लोग फालतू या जरूरी कामों में इधर–उधर सड़कों पर, बाजारों में भागते–दौड़ते, तब अतिव्यस्त उन लोगों को घण्टों आँखें खोले, डरते–डरते देखता रहता। कई बार एक–एक को रोककर पूछता–‘‘क्या आपको सपने नहीं आते? क्या आप सपने नहीं देखते?’’
लोग उसका मजाक उड़ाकर आगे बढ़ जाते।
चूँकि वह तमाम उम्र सपने देखता रहा, उसकी आँखों में नींद कभी नहीं आई।
एक दिन वह इसी भीड़ के बीच सपनों के बारे में पूछता हुआ मर गया। पर उसकी आँखें तब भी खुली थीं।
क्या वह अब भी सपने देख रहा था?

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