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लघुकथाएँ - देश - श्याम सुन्दर अग्रवाल
स्कूल-2

‘‘अंकल,बंटी आपके पास तो नहीं आया। ’’ पड़ोसियों की लड़की दरवाजे पर खड़ी पूछ रही थी।
‘‘नहीं बेटे, क्या बात हो गई?’’ मैंने पूछा।
‘‘उसके स्कूल की रिक्शा खड़ी है और उसका कुछ पता नहीं। न जाने बस्ता फेंककर कहां चला गया।’’
लड़की के चेहरे से चिंता व परेशानी झलक रही थी।
बंटी से मुझे बहुत प्यार था और उसे मुझसे। था तो मैं उसके बाबा की उम्र का, मगर बंटी मुझसे ऐसे व्यवहार करता जैसे मैं उसका हमउम्र होऊँ। वह घंटों मेरे साथ खेलता रहता। वह तीन साल का हो गया था और उसे स्कूल जाने का बड़ा चाव था। पिछले सप्ताह ही वह खरगोश की शक्ल वाले सुन्दर बस्ते में पुस्तक डाले फिर रहा था।
सभी को कह रहा था, ‘‘मैं भी स्कूल जाऊँगां, रिक्शा में बैठकर ।’’
चार दिन पहले जब वह पहली बार स्कूल गया तो खुशी उसे संभाली नहीं जा रही थी।
उठकर मैं भी लड़की के साथ हो लिया। अड़ोस–पड़ोस में सभी जगह पता कर लिया गया। घर का कोना–कोना छान मारा गया। मगर बंटी नहीं मिला।
अचानक मेरा ध्यान घर के पिछवाड़े बनी कोठरी की ओर गया।
‘‘उस कोठरी में निगाह मार ली?’’ मैंने पूछा।
‘‘उस कोठरी में जाने से तो वह बहुत डरता है।’’ बंटी की दादी ने कहा।
‘‘कोठरी के भीतर तो वह झांकता तक नहीं।’’ बंटी की मां कह रही थी।
‘‘फिर भी देखने में क्या हर्ज है।’’ कहता हुआ मैं कोठरी की ओर बढ़ा।
कोठरी के भीतर रोशनी बहुत कम थी। आँखों की पुतलियों ने पूरी तरह फैल कर ध्यान से देखा ।
स्कूल की यूनीफार्म पहने बंटी एक कोने में दुबका बैठा था।
मैं उसकी ओर बढ़ा तो वह चीख मारकर रो पड़ा। बड़ी मुश्किल से उसे उठाकर बाहर लाया।
बंटी का बदन तेज बुखार से तप रहा था।

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