पिछली सर्दियों में जब कई बार बर्फ़ गिरी तो हमारे नायक को अपने दफ्तर जाते हुए अक्सर बर्फ़ के गोलों की मार सहनी पड़ती है। नैनीताल में जब बर्फ़ गिर चुकी होती है तो बच्चे और किशोर–किशोरियाँ अपनी–अपनी बालकनी या घर की किसी ओट में खड़े होकर राह गुजरने वालों को बर्फ़ के गोले मारते हैं।
ऐसे ही एक दिन जब हमारा नायक अपने दफ्तर जाने वाले रास्ते से गुजरा तो उस पर बर्फ़ के ढेर सारे गोले फेंके गए। बच्चों की इस हरकत पर नायक को बड़ा गुस्सा आया। वह चीखा–‘‘कौन बच्चे ये हरकत कर रहे हैं। गधे हैं गधे। अच्छे घरों के बच्चे नहीं लगते। पता नहीं, इन लोगों के माँ–बाप इन्हें सभ्यता क्यों नहीं सिखाते?’’ दो दिन बाद नायक को किसी से पता चला कि वह घर तो संस्थान के ‘बड़े साहब’ का है; जिसकी एक यूनिट में वह काम करता है। अब हमारा नायक बहुत सकपकाया कि उसे बच्चों को इस तरह नहीं डाँटना था।
वह सोचने लगा–बड़े साहब के परिवार से जुड़ने का यह अच्छा बहाना रहेगा। अब जब बच्चे उसे बर्फ़ के गोले मारेंगे तो वह उन्हें डाँटने के बजाय कहेगा, ‘‘छोटे–छोटे बच्चों, बड़े प्यारे हैं आप लोग। क्या–क्या नाम है आप लोगों के ? मेरे दोस्त बनेंगे आप लोग?’’ फिर जेब से टाफियाँ निकालकर कहेगा, ‘‘लीजिए, टाफियाँ खाएँगे क्या?’’ इस तरह से इनसे दोस्ती कर उनके घर जाना शुरू कर देगा ओर फिर धीरे–धीरे बड़े साहब की चमचागिरी करने का मौका भी मिल जाएगा।
मगर यह बात नायक के लिए बड़ी तकलीफेदेह रही कि पिछले वर्ष उस घटना के बाद फिर उस सर्दी की बर्फ़ नहीं गिरी। नायक ने आने वाले वर्ष की सर्दियों के इन्तजार में समय गुजार दिया। इस वर्ष वह दिसम्बर के प्रथम सप्ताह से ही बर्फ़ की प्रतीक्षा करता रहा मगर सर्दियाँ लगभग आधी बीत चुकी हैं और अभी तक कुल एक बार, बहुत ही कम, बर्फ़ पड़ी।
हमारा नायक आजकल बहुत दुखी चल रहा है कि इस वर्ष अभी तक नैनीताल में बर्फ़ नहीं गिरी कि लोग एक–दूसरे पर बर्फ़ के गोले फेंकते और उस पर भी बड़े साहब के बच्चे....