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लघुकथाएँ - देश - सीताराम गुप्ता |
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शहर में दंगे हो रहे थे। चारों तरफ अफरा–तफरी का माहौल था। बेवकाबू भीड़ को नियंत्रित करना असंभव–सा होता जा रहा था। भीड़ थी कि बढ़ती ही जा रही थी। कोई पत्थर फेंक रहा था तो कोई चुपके से कहीं आग लगाकर भीड़ में घुस जाता था। पत्थरबाजी और आगजनी की घटनाएँ बढ़ती ही जा रही थीं कि अचानक गोलीबारी भी शुरू हो गई। लोग घायल हो–होकर कटे वृक्षों की भाँति–गिरने लगे। चारों तरफ खून ही खून बिखरा दिखाई देने लगा। घायलों को अस्पताल पहुँचाया जाने लगा। न जाने कितने घायल मृतकों में तबदील हो चुके थे। चारों ओर कोहराम मच गया। टीवी चैनलों के रिपोर्टर जो अब तक फर्ज अदायगी के मूड में सुस्त से खड़े थे ;सक्रिय हो गए। घायलों और मृतकों के परिजनों से साक्षात्कार का सिलसिला तेज हो गया। इतने में सनसनाती हुई एक गोली आई और एक टीवी रिपोर्टर से बातचीत कर रहे एक मृतक के रिश्तेदार की बाँह में घुस गई। ऐसे मौके दुर्लभ होते हैं, जब कोई सनसनीखेज घटना खुद–ब–खुद कैमरे में कैद हो जाए। पूरी टीम गोली लगकर गिरते हुए व्यक्ति को कवर करने के लिए अत्यंत सक्रिय हो उठी। लेकिन ये क्या? रिपोर्टर ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ माइक अपने सहायक की ओर फेंक दिया और लपककर गोली लगकर गिरते हुए व्यक्ति को थाम लिया। रिपोर्टर उस व्यक्ति को सहारा देकर पास खड़ी एक कार तक ले गया और कार के पास खड़े व्यक्ति से जल्दी अस्पताल ले जाने की मिन्नतें करने लगा। टीवी चैनल की टीम के लोग ख़फा होकर रिपोर्टर से कहने लगे कि तुमने ये क्या किया ? इतनी अच्छी कवरेज का सत्यानाश कर डाला और साथ ही अपने कैरियर का भी?
‘‘अगर गोली लगने वाले व्यक्ति को समय पर चिकित्सा सुविधा मिल गई तो संभव है इसकी जान बच जाए और एक परिवार बिखरने से बच जाए और ये भी एक कम अच्छी स्टोरी नहीं रहेगी’’, रिपोर्टर ने कहा। रिपोर्टर घायल व्यक्ति को लेकर फौरन रवाना हो गया लेकिन घायल व्यक्ति को ले जाते हुए इस रिपोर्टर को किसी टीवी चैनल ने कवर नहीं किया। टीवी चैनलों की टीमें किसी अच्छी स्टोरी को कवर करने की तलाश में जुट गई।
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