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लघुकथाएँ - देश - डॉ.श्यामसुंदर दीप्ति
बदला

‘‘देख! तू हर बात पर ज़िद मत किया कर। जो काम करने का होता है, वह तू करती नहीं।’’ उमा ने रचना को झिड़कते हुए कहा।
‘‘करती तो हूँ सारा काम। सब्जी बनाने के लिए टमाटर नहीं ला के दिए थे। आपके साथ कपड़े भी तो धुलवाए थे।’’ रचना ने मम्मी को दलील दी।
‘‘यह काम तो नहीं करने होते। पढ़ भी लिया कर।’’ उमा को और गुस्सा आ गया।
‘‘कर तो लिया स्कूल का काम।’’ रचना ने अपना स्पष्टीकरण दिया।
‘‘अच्छा ज्यादा बातें मत कर और एक तरफ होकर बैठ।’’ रचना मशीन से कपड़े को पकड़ने लगी। उमा को गुस्सा आया और उसने थप्पड़ जमा दिया।
‘‘अब अगर जो हाथ आ जाता मशीन में।’’
रचना रोने लगी।
‘‘अब रोना आ गया चुप कर, नहीं तो और लगेगी एक। अच्छी बातें नहीं सीखनी, कोई कहना नहीं मानना।’’
थोड़ी देर में दरवाजा खटका। उमा ने रचना से कहा, ‘‘अच्छा जा कर देख, कौन है बाहर।’’
पहले तो बैठी रही और गुस्से से मम्मी की तरफ देखती रही, पर फिर दोबारा कहने पर उठी और दरवाजा खोला। रचना के पापा का कोई दोस्त था।
रचना दरवाजा खोल कर लौट आई।
‘‘कौन था?’’ उमा ने पूछा।
‘‘अंकल थे।’’ रचना ने रूखा -सा जवाब दिया और साथ ही बोली, ‘‘मैंने अंकल को नमस्ते भी नहीं की।’’

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