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लघुकथाएँ - संचयन - सुभाष नीरव
सफर में

"अबे, कहाँ घुसा आ रहा है?"सिर से पाँव तक गंदे भिखारी-से आदमी से अपने कपड़े बचाता हुआ वह लगभग चीख-पड़ा। उस आदमी की दशा देखकर मारे घिन्न के मन ही मन वह बुदबुदाया-कैसे डिब्बे में न चढ़ता। भले ही ट्रेन छूट जाती।
माँ के सीरियस होने का तार उसे तब मिला, जब वह शाम सात बजे आफिस से घर लौटा। अगले दिन, राज्य में बंद के कारण रेलें रद्द कर दी गई थीं, और बसों के चलने की भी उम्मीद नहीं थी। अत: उसने रात की आखिरी गाड़ी पकड़ना ही बेहतर समझा।
एक के बाद एक स्टेशन पीछे छोड़ती ट्रेन आगे बढ़ी जा रही थी। खड़े हुए लोग आहिस्ता-आहिस्ता नीचे फर्श पर बैठने लग गए थे। कई अधलेटे-से भी हो गए थे।
"जाहिल! कैसी गंदी जगह पर लुढ़के पड़े हैं! कपड़ों तक का ख्याल नहीं है।" नीचे फर्श पर फैले पानी और संडास के पास के पास की दुर्गन्ध और गन्दगी के कारण उसे घिन्न-सी आ रही थी, अत: झाँका। अंदर तो और भी बुरा हाल था। असबाब और सवारियों से खचाखच भरे डिब्बे में तिल रखने की जगह नहीं थी।
आगे बढ़ना असंभव देख वह वहीं खड़े रहने की विवश हो गया। उसने घड़ी देखी, साढ़े दस बज रहे थे-रात के। सुबह छह बजे से पहले गाड़ी क्या लगेगी दिल्ली ! रात-भर यहीं खड़े-खड़े यात्रा करनी पड़ेगी-वह सोच रहा था।
ट्रेन अंधकार को चीरती आगे बढ़ती जा रही थी। खड़ी हुई सवारियों में से दो-चार को छोड़कर शेष सभी नीचे फर्श पर बैठ गई थीं और आड़ी-तिरछी होकर सोने का उपक्रम कर रही थीं।
"जाने कैसे नींद आ जाती है इन्हें!" वह फिर बुदबुदाया।
ट्रेन जब अम्बाला से छूटी तो उसकी टाँगों में दर्द होना आरम्भ हो गया था। नीचे का गंदा-गीला फर्श उसे बैठने से रोक रहा था। वह किसी तरह खड़ा रहा और इधर-उधर की बातों को याद कर, समय को गुजारने का प्रयत्न करने लगा।
कुछ ही देर बाद, उसकी आँखें नींद के बोझ से दबने लगीं। वह आहिस्ता-आहिस्ता टाँगों को मोड़कर बैठने को हुआ, लेकिन तभी अपने कपड़ों का ख्याल का सीधा तनकर खड़ा हो गया। पर खड़े-खड़े झपकियाँ जोर मारने लगीं और गीले फर्श पर अधलेटा-सा हो गया।
किसी स्टेशन पर झटके से ट्रेन रूकी तो उसकी नींद टूटी। मिचमिचाती आँखों से उसने देखा-डिब्बे में चढ़ा एक व्यक्ति एक हाथ में ब्रीफकेस उठाए, आड़े-तिरछे लेटे लोगों के बीच से रास्ता बनाने की कोशिश कर रहा था। उसके समीप पहुँचकर उस व्यक्ति ने उसे यूँ गंदे-गीले फर्श पर अधलेटा-सा देखकर नाक-भौं सिकोड़ी और बुदबुदाता हुआ आगे बढ़ गया,'जाहिल ! गंदगी में कैसे बेपरवाह पसरे पड़े हैं !'


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