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लघुकथाएँ - देशान्तर - सुखोमिलिंस्की
मनस्थिति

मिकोला और सार्गेइका स्कूल की छुट्टी के बाद घर लौट रहे थे। स्कूल में टीचर ने सार्गेइका से जो प्रश्न पूछे थे, उनका उसने सही जवाब दिया था और सबसे ज्यादा अंक पान पर शाबाशी भी पाई थी, जबकि मिकोला सही जवाब न दे पाने पर कम अंकों और डांट का भागीदार बना था।
यह दिन सुन्दर बसन्त का दिन था। सूरज पूरी तेजी से चमक रहा था और मिकोला मुँह फुलाए उदास चला जा रहा था।
दायीं ओर से उड़कर आते हुए बादल को देखकर सार्गेइका चहका, ‘‘आह, कितना सुन्दर बादल है, बिल्कुल सफेद गुलाब की तरह। कितनी कोमल और नाजुक पंखुडि़याँ हैं इसकी।’’
मिकोला काफी देर तक बादल को घूरता रहा और फिर धीरे से बोला,‘‘कहां हैं पंखुडि़याँ......कहां है सुन्दर सफेद गुलाब.....मुझे तो वह एक भेडि़ए जैसा दिखाई दे रहा है....वो देखो, उसका सिर कितना भयानक लग रहा है।....अरे ......अरे.....वह तो मुँह खोल रहा है!’’
एक दूसरे की कल्पनाएं न समझते हुए दोनों आपस में एक–दूसरे का मुँह देखते रह गए।

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