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लघुकथाएँ - देश - सुरेन्द्र कैले
रिश्ते

‘किसका फोन था?’’
‘‘मेरे भाई का।’’
‘‘तुम्हारे दोनों भाई तो अभी कल ही मिलकर गए हैं।’’
‘‘हाँ, मगर यह मेरे तीसरे भाई का फोन था।’’
‘‘यह तीसरा कहाँ से आ गया ?’’
‘‘यह मेरा धर्म–भाई है।’’
‘‘धर्म–भाई?’’
‘‘हाँ वहीं, मैरून पगड़ी वाला, जो हमारी शादी में खूब काम कर रहा था।’’
‘‘कोई धर्म–भाई नहीं होता। ये सब रिश्ते धोखा....।’’
‘‘बस चुप्प!’’ जीती ने अपने पति को रोष में कहा।
‘‘मैं ऐसे संबंधों को नहीं मानता। बहन–भाई के ये नकली रिश्ते आँखों में धूल झोंकने के लिए ही होते हैं। इस आड़ में...’’
‘‘चुप भी करोगे या नहीं....’’
जीती पूरे रोष में आ गई थी। वह अपने इस पवित्र रिश्ते पर अपवित्र शब्दों की धूल नहीं पड़ने देना चाहती थी। उसकी कठोर आवाज ने पति को खामोश कर दिया। मगर मन में इस रिश्ते के विरोध का लावा उसे तड़पा गया। जीता के विरुद्ध पत्थर सरीखे शब्दों की वर्षा को जबरदस्ती रोकते हुए वह कमरे से बाहर हो गया।
जीती ने स्वयं को अपमानित महसूस किया। वह फूट–फूट कर रो पड़ी। कुछ देर बाद वह सँभली तथा सोचने लगी।
ये कच्चे धागे वाले रिश्ते इतने कमजोर नहीं होते कि किसी शक्की स्वभाव वाले व्यक्ति के अपमान भरे शब्दों से टूट जाएँ। मैं भी कितनी मूर्ख हूँ जो इतनी जल्दी खीझ गई।
अब वह शांत थी तथा सोच रही थी, ‘‘ जिस व्यक्ति से अभी कुछ दिन पहले ही विवाह हुआ है और जिसने मुझे ही नहीं जाना, वह मेरे रिश्ते को क्या समझेगा।’’

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