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लघुकथाएँ - देश - सूर्यकांत नागर
विष-बीज

डोनेशन और झूठा बर्थ सर्टिफिकेट देने के बाद नन्हे संदीप को स्कूल में दाखिला मिल गया। अगले दिन ड्रेस और बस्ता दिलाने के लिए मैं उसे बाजार ले गया। दुकान में कुछ ग्राहक पहले से मौजूद थे और दुकानदार उनसे उलझा हुआ था। गर्मी कुछ अधिक ही थी। दुकान का पंखा मरी–मरी हवा फेंक रहा था। कुछ देर बाद संदीप ने कहा, ‘‘पापा, बहुत प्यास लगी है। पानी पिलवा दीजिए न।’’ खरीददारी करते समय दुकानदार से पानी मांगकर पिलवाने का पिछला अनुभव साथ था। मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
‘‘पापा, सचमुच बहुत प्यास लगी है।’’ दुकान के कोने में पड़े साफ–साफ मटके और ग्लास को देखते हुए उसने फिर जिद की।
मैंने फिर अनसुना कर दिया। उसने मांग दुहराई तो सावधानी से इधर–उघर देखते हुए मैं अपना मुँह बेटे के मुँह के पास ले गया और धीमे से कहा, जैसे मैं कोई रहस्य और महत्त्व की बात बता रहा हूँ, ‘‘यह मुसलमान की दुकान है।’’
मैंने सोचा था, सुनकर वह चौंकेगा और धर्म भ्रष्ट होने जैसी किसी बात का खयाल का अपना विचार त्याग देगा। मगर मैंने देखा, उसका चेहरा सपाट था। मेरी बात का उस पर कोई असर नहीं हुआ था। एक क्षण रुककर उसने पूछा, ‘‘पापा, यह मुसलमान क्या होता है?’’
मैं बगलें झांकने लगा। भय था कि दुकानदार ने यह सुन न लिया हो। मुझे चुप देख संदीप ने फिर पूछा, ‘‘मुसलमान की दुकान का पानी पीने से क्या होता है पापा?’’
मैंने बेटे के मुँह पर हाथ धर लिया और खींचकर जल्दी से बाहर ले आया। लग रहा था, मुलायम जमीन पर बबूल और थूहर बो दिए जाने का पाप मुझसे हो गया है।

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