दस बरस की चारु को रिश्ते बहुत भाते हैं। उसे यह जानने में बड़ा मजा आता है कि कौन किसका क्या लगता है कि एक ही व्यक्ति कितने सारे रिश्तों की डोरियों से बँधा होता है। वह इसे पहेली की तरह लेती है। उसे यह सब कुछ ज्यादा अच्छा इसलिए भी लगता है क्योंकि उससे सात वर्ष बड़ा भाई अमोघ इस मामले में बेहद नासमझ है। उसे यह बात खुशी से भर देती है कि चलो, कहीं तो मैं भैया से बढ़कर हूँ। अन्यथा वही हर बात में बीस पड़ता है। और वह मन मसोसकर रह जाती है कि काश मैं पहले पैदा हुई होती!
परसों जब हम गाँव से लौटे वह मुझसे पूछने लगी–‘‘मम्मी, मेरे दादाजी ने तीन–तीन शादियाँ की थीं क्या?’’
‘‘हाँ! क्यों?तुझसे किसने बताया?’’
‘‘नहीं, वहाँ औरतें कुछ ऐसी ही बातें कर रही थीं...वा पेला वाली....वा दूसरी वाली....लाइक देट..! मम्मा, बताओ ना वे कौन–कौन थीं जिनसे दादाजी की शादियाँ हुई।’’
‘‘देख,तेरी पहली दादी का नाम था धापू बाई। वे बच्चे सहित जचकी में मर गई।’’
‘‘जचकी मीन्स?’’
‘‘मतलब डिलीवरी। चाइल्ड बर्थ। फिर उनकी दूसरी शादी हुई। ये थीं रामू बाई जो टीबी की बीमारी में गुजर गईं। अब जो दादी हैं उनका नाम है सरजू बाई और वह इस तरह वे दादाजी की तीसरी पत्नी हुई।’’
‘‘ओह ऐसा!’’
‘‘पुराने समय में गावों में इतनी मेडिकल सुविधाएँ कहाँ थीं। एक या दो पत्नियों का स्वर्ग सिधार जाना आम बात थी। हर दूसरे तीसरे घर में ऐसा सुनने को मिल जाता था।’’
कल चारु ने अपनी सहेली को फोन लगाया कि उसके पास खेलने आ जा। वह नहीं आ पाई तो वह उदास हो मुझसे कहने लगी–
‘‘मम्मी, आप लोग कितने लकी थे। तीन -तीन सिस्टर्स! आपस में ही खेल लेते होओगे। मैं तो बिल्कुल अकेली पड़ जाती हूँ ।’’ उसकी इस बात ने मुझे अंदर तक द्रवित कर दिया। मैंने कहा–
‘‘तू कहाँ है अकेली। मैं हूँ ना तेरे साथ।’’ मेरे हल्के से आश्वासन से वह एलबम निकाल लाई। पुराने फोटोग्राफ्स देख–देख कर खुश होती रही। फिर पूछने लगी–
‘‘मम्मी, यह सब आपकी मौसियाँ हैं न?!’’ मैं उसके पास सरक आई और उत्साह से बताने लगी
‘‘हाँ,मेरी पाँच मौसियाँ हैं और चार मामा। इसी तरह छ्ह काका हैं और तीन बुआ।’’
‘‘वाह। तब तो आपको बचपन में कितना मजा आता होगा। जब गरमी की छुट्टियों सब के बच्चे इकट्ठे होते होगें।’’
हाँ मजा तो बहुत आता था। यह कह कर मैंने बिटिया को बाँहों में भर लिया। मानो ऐसा कर के मैं समय के झूले में पीछे झूल आऊँगी।
जब मैं यूँ उन्मुक्त हो जि़न्दगी को जी रही थी तभी चारु बोली–‘‘मम्मी, आज आपकी सब मौसियों के बारे में बताओ ना?’’
‘‘फिर कभी बताऊँगी चारु! अभी मुझे बहुत सा काम है।’’ मैं उठने को हुई तो वह ठुनकने लगी। जिदियाने लगी कि अभी बताओ। इकलौती लड़की को कौन माँ नही लडि़याती और फिर मैं तो अभी–अभी समय के झूले में उसके साथ बचपन की पींग भर चुकी थी। सो मैं काम करते–करते उसे बताने लगी। वह मेरे आस–पास फुदकते–फुदकते मुझे सुनती रही।
‘‘देख, सबसे बड़ी लक्ष्मी मौसी, जो स्कूल में पढ़ाती थीं। उनसे छोटी चंदा मौसी जो गाँव में रह खेती करती हैं। और फिर तेरी नानी त्रिगुणी। तीसरे नम्बर पर हुई ना इसलिए।’’
‘‘हूँ...।’’
‘‘नानी के बाद पिपरिया वाली तारा मौसी उनसे छोटी देवास वाली यामा मौसी और सबसे छोटी मुम्बई वाली शोभना मौसी।’’
‘‘अच्छा। अब सभी मौसाजियों यानी कि मेरे नानानियों के बारे में बताओ। सिक्स नानाजीस्!’’ उत्सुकता उसकी आँखों से ढुलकी पड़ रही थी।
‘‘छह कहाँ? नानाजी तो चार ही हैं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरे दो मौसाजी नहीं रहे।’’
‘‘अच्छा मतलब गुजर गए।....टी बी हो गई होगी शायद....है ना?....पर पहले के जमाने में दो–दो, तीन–तीन शादियाँ होना आम बात थी ना!....मम्मी, फिर मेरे दादाजी की तरह आपकी मौसियों ने दूसरी शादियाँ क्यों नहीं कर ली?’’ उसने मासूम जिज्ञासा की कोरी स्लेट मेरे आगे करते हुए पूछा। मैं चुप रही। उसे समझा न सकी विधवा–विवाह और विधुर–विवाह की सामाजिक सांख्यिकी।