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लघुकथाएँ - देश - डॉ0 तारा निगम
मां, मैं गुडि़या नहीं लूंगी

मैं बाजार गयी थी, सोचा ऋचा और विवेक के लिए कुछ ले लूं। मैंने विवेक के लिए क्रिकेट का सामान ले लिया, क्योंकि मुझे मालूम है उसे क्रिकेट बहुत पसंद है और ऋचा के लिए एक सुन्दर–सी गुडि़या खरीद ली।
विवेक अपना सामान पाकर खुश–खुश बाहर चला गया। ऋचा गुडि़या को एकटक निहारती खड़ी रह गयी। मैंने पूछा :
‘‘बेटी! तम्हें गुडि़या पसंद नहीं आयी?’’
‘‘मां! आपने मेरी पसंद–नापसंद पूछी ही कहां!’’
‘‘इसमें पूछने की क्या बात है, लड़कियां तो गडि़या ही खेलती हैं।’’
‘‘भैया से तो पूछती हो न?’’
‘‘मैं अवाक् रह गयी, ‘‘ऋचा बेटे तेरे लिये इतनी बड़ी और सुन्दर गुडि़या लायी हूं, अच्छी तो है न!’’
‘‘अच्छी है लेकिन...’’
‘‘लेकिन क्या! बोलो ऋचा।’’
‘‘मां, यह वही करेगी, जो मैं करूंगी, मैं सुलाऊंगी तो यह सो जायेगी। मैं जो कपड़े पहना दूंगी, पहन लेगी। मैं इसे डाटूंगी, मारूंगी तो चुपचाप सह लेगी। जब कहीं ले जाऊंगी, तभी जाएगी। जब मैं चाहूंगी, गोद में लेकर प्यार करूंगी, नहीं चाहूंगी तो नहीं करूंगी। ये कोई विरोध नहीं करेगी, मां। हमेशा चुप रहेगी।’’
‘‘यह तो अच्छा है, तू जैसा करेगी, यह वैसा ही करेगी।’’।
‘‘नहीं मां, मुझे गुडि़या नहीं चाहिए।’’

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